Saturday, May 30, 2009

भूलते जा रहे संस्कृति थारु युवक-युवतियां



थारु बाला सुकर्णा को जींस की पैण्ट व टीशर्ट पहनना पसन्द है। पैट-शर्ट पहनने के शौकीन राजन भी फैशन की दुनियां से अनजान नहीं रहे। सुकर्णा व राजन को थारुओं के पारम्परिक वेशभूषा की जानकारी तक नहीं है। भारत-नेपाल सीमा पर बसी जनजातियों की संस्कृति पर खतरे के बादल मड़रा रहे हैं। गैसड़ी व पचपेड़वा विकासखण्डों में थारुओं की बहुलता है।


घने जंगलो के बीच गांवों में निवास कर रहे थारुओं की आबादी लगभग 27000 है। अपने को महाराष्ट प्रताप का वंशज बताने वाले थारु सोहेलवा जंगल में कब से रह रहे हैं, इस बात का पता किसी को नहीं है। थारु महलिाओं में पचरा, लंहगा, चुनरी व चोली पहनने का रिवाज रहा है। महिलाएं कर्णफूल, करधनी व हबेल आदि आभूषण पहनती हैं। पुरुषों में धोती,कुर्ता व सिर पर पगड़ी बांधने की परम्परा काफी पुरानी है। उनके द्वारा बोली जाने वाली थरुई भाषा को समझना आसान नहीं है। थारुओं की आर्थिक दशा के आधार पर उन्हें दो वर्गो में विभाजित किया जा सकता है। भारत नेपाल सीमा पर निवास कर रहे वनवासियों का एक वर्ग निरक्षर व गरीब है। पूरा वक्त दो जून की रोटी जुटाने में बीत जाता है। गरीब माने जाने वाले थारुओं ने अपनी संस्कृति को करीने से संजोया है। उनका पोशाक, आभूषण, रीति रिवाज व बोली भाषा आज भी वही है जो सौ साल पहले थी। ऐसे लोगों की संख्या लगभग 15हजार के आसपास बतायी जाती है। दूसरे वर्ग में शिक्षित व नौकरी पेशे से जुडे़ थारु हैं। इनमें से अधिकांश युवा हैं जो बाहर रहकर पढ़ाई करते हैं। थारुओं की शिक्षित वर्ग अपनी प्राचीन संस्कृति को भूलता जा रहा है। युवतियां अब लहंगा चुनरी की जगह जीन्स टाप पहन रही हैं। पुराने आभूषणों के बावत उन्हें कोई जानकारी नहीं है। लखनऊ में व्यवसायिक शिक्षा प्राप्त कर रहे रजनी फर्राटादार अंग्रेजी बोलती है। सुकर्णा व रजनी बताती है कि लहंगा व चुनरी पहनना अब बीते जमाने की बात है। यदि भविष्य को संवारना है तो बोलना व पहनावे में परिवर्तन लाना होगा। थारु युवक भी अब धोनी की स्टाइल में लम्बे बाल, कसी हुई जीन्स व जैकिट पहनना पसन्द करते हैं। अकलघरवा, मंसानाकी, मड़नी व सड़नी के लगभग एक दर्जन थारु युवकों से गैसड़ी रेलवे स्टेशन पर मुलाकात हुई। वे मुम्बई से कमा कर आ रहे थे। गोविन्द,राजबहादुर,राना के मुताबिक वे पिछले 15 वर्षो से मुम्बई में रहते हैं। बचपन में ही गांव से चले गये थे, इसलिए उन्हें थरुई भाषा का ज्ञान नहीं है। वे परम्परागत वस्त्रों से अनभिज्ञ हैं। अनुसूचित जनजाति के कल्लूराम सोनगढ़ा के प्रधान हैं। वह बताते हैं कि समय के साथ परिवर्तन जरूरी है। समाज शास्त्री डा.नागेन्द्र सिंह का कहना है कि बदलाव के साथ-साथ अपनी सभ्यता व संस्कृति को भी बचाये रखना जरूरी है। शिक्षा को संस्कृति से अलग नहीं किया जा सकता। पश्चिमी सभ्यता का अन्धानुकरण देश के लिए घातक है।

केदारनाथ में बर्फबारी


रुद्रप्रयाग: विश्व प्रसिद्ध धाम केदारनाथ में दूसरे दिन भी जमकर बर्फबारी हुई। बर्फबारी का यात्रियों व अन्य पर्यटकों जमकर लुत्फ उठाया।
रविवार शाम हुई मूसलाधार बारिश के बाद से केदारपुरी में लगातार बर्फबारी हो रही है। इससे यहां का मौसम काफी ठंडा हो गया है। सोमवार सुबह से दोपहर तक केदारनाथ में जमकर बर्फबारी हुई। इस सुहावने मौसम का पर्यटकों व यात्रियों ने खासा लुत्फ उठाया। पिछले कई दिन से बारिश से उच्च हिमालय की सूखी पड़ी बर्फीली चोटियों में रौनक लौट आयी है। केदारपुरी व मद्दमहेश्वर में आसपास की चोटियों का नजारा दिलकश बन गया है। बारिश से केदारपुरी, मदमहेश्वर , तुंगनाथ व इनसे सटे क्षेत्रों में ठंड भी बढ़ गई है।

मेले ने बिखेरी सांस्कृतिक छटा


पोखरी (रुद्रप्रयाग)। खादी, पर्यटन, औद्योगिक एवं किसान विकास मेले में विभिन्न सांस्कृतिक कला मंच के कलाकारों ने अपनी प्रस्तुतियों से सांस्कृतिक छटा बिखेरी।
सात दिवसीय मेले में विभिन्न कार्यक्रम आयोजित किए जा रहे हैं। सांस्कृतिक संध्या में संदेश कला मंच के हर्ष भंडारी, विजयपाल, पूजा, जगमोहन ,सूरज, शैलू, पंकज शाह, महेश चन्द कुलदीप, संगीता, शिवानी आदि ने प्रस्तुतियां दी। पौड़ी से आए परम संस्था के कलाकारों ने भी सांस्कृतिक कार्यक्रम प्रस्तुत किए। गोपीनाथ कला संगम गोपेश्वर के कलाकारों ने भी सांस्कृतिक छटा बिखेरी। मंच संचालन भगीरथ भट्ट और बीआर चौधरी ने संयुक्त रूप से किया। इस अवसर पर क्षेत्र प्रमुख अनीता नेगी ने कहा कि क्षेत्र के विकास के लिए इस तरह के मेलों का आयोजन समय-समय पर होता रहना चाहिए। इस अवसर पर जिला पंचायत सदस्य संगीता असवाल, महिला मंगल दल अध्यक्ष राजेश्वरी देवी, ज्येष्ठ उप प्रमुख मंदोदरी देवी, प्रधान सुन्दरी देवी, व्यापार संघ अध्यक्ष महेन्द्र प्रकाश सेमवाल, मेलाध्यक्ष देवराम पंत, उपाध्यक्ष रामप्रसाद सती, कुवंर सिंह खत्री ने भी विचार व्यक्त किए।