उत्तरांचल के अंदर एक उत्तराखंड हमेशा जिन्दा था। इसलिए कि राज्य बनाने के संघर्ष की प्राणशक्ति यही था और क्षेत्र की जनता ने लंबा आंदोलन इसी ऐतिहासिक नाम पर लड़ा था। ऐसे में राज्य को उसकी ऐतिहासिक पहचान से महरूम रखने का फैसला न सिर्फ अस्वाभाविक था, बल्कि एक मायने में जनता और आंदोलनकारियों की तौहीन भी हुई थी। नौ नवंबर 2000 को राज्य की स्थापना के बाद से ही उत्तराखंड नाम की वापसी की मांग जनता के अजेंडे में शामिल हो चुकी थी। आज यह नाम लौटाकर कांग्रेस सरकार ने अपने पुराने वादे को पूरा किया है।
भारतीय जनता पार्टी ने संसद में बहस के दौरान सरकार के इस कदम का यह कहकर विरोध किया कि इससे चुनावी राजनीति की बू आ रही है, क्योंकि उत्तरांचल में चुनाव निकट हैं। पार्टी ने यह भी कहा कि नाम बदलने से सरकारी मशीनरी को चार से पांच सौ करोड़ रुपये का फालतू बोझ वहन करना पड़ेगा। विरोध की ये दलीलें एक हद तक तो तर्कसंगत कही जा सकती हैं, पर ये पार्टी के पुराने निर्णय की अप्रासंगिकता से ध्यान बंटाने की कवायद ही है, क्योंकि तब उत्तरांचल नाम गढ़कर बीजेपी ने अलग राज्य के लिए आंदोलन चलाने वाली राजनीतिक ताकतों के हाथ से कमान और श्रेय छीनने की कोशिश की थी।
चुनावी राजनीति के बहाने से ही सही, परंतु आज यदि केंद्र सरकार की पहल पर संसद ने राज्य को उसका मूल नाम लौटाया है, तो कहना चाहिए कि यह तरक्की और प्रगति के लिए छेडे़ गए संघर्षों के भीतर की संवेदना को मान्यता देने की एक सार्थक कोशिश है। हालांकि ऐसा नहीं है कि उत्तरांचल नाम के रहते सब कुछ ठीक नहीं था और मूल नाम कोई जादू की छड़ी साबित होने जा रहा है। देखा जाए तो नए राज्य के रूप में उत्तरांचल की गिनती देश के बेहतर राज्यों में होने लगी है। आज राज्य यह दावा करने की स्थिति में है कि उसकी विकास दर 16.97 प्रतिशत का आंकड़ा छू रही है। करीब 10,000 करोड़ का निजी निवेश राज्य की बेहतर सेहत का संकेत है। राज्य निर्माण से पहले, यानी 1993-2000 में औद्योगिक विकास की जो दर यहां 1.9 फीसदी थी, वह आज 18.18 तक उछाल मार चुकी है। देश के बड़े-बड़े उद्योग यहां अपनी यूनिटें लगा रहे हैं। राज्य के ढांचागत विकास के असर कुछ बरसों में नजर आने लगेंगे। अलबत्ता सरकार पर फिजूलखर्ची, भ्रष्टाचार और बेलगाम नौकरशाही के अलावा ये भी आरोप लगते रहे हैं कि योजनाओं के लाभ सुदूर पर्वतीय इलाकों तक नहीं पहुंचे हैं और विकास की बयार का आनंद कुछ चुनिंदा क्षेत्रों और लोगों के बीच बह रही है।
कहा जा सकता है कि नाम में क्या धरा है, असल बात तो काम की है। लेकिन जनता की संवेदनाओं और भावनाओं की भी अहमियत होती है। इसीलिए मुम्बई, चेन्नै और बंगलुरु को उनके मूल नाम वापस लौटाए गए। फिर यह भी पूछा जाना चाहिए कि छत्तीसगढ़ और झारखंड के मामले में आंचलिकता के जो आग्रह स्वीकार किए गए, उत्तराखंड में उन्हें परे क्यों फेंक दिया गया। कहीं यही वजह तो नहीं कि लंबे संघर्ष और कुर्बानी के बाद हासिल अलग राज्य के प्रति जो जज्बाती सोच मुनस्यारी और धारचूला से लेकर माणा और हरसिल तक झलकनी चाहिए थी, वह नदारद है?
दरअसल हमारे पास यह मानने के पर्याप्त कारण हैं कि जन आकांक्षाओं के खिलाफ उत्तरांचल नाम देकर बीजेपी इस नए राज्य के इतिहास पर हमेशा के लिए अपनी धाक के चिह्न छोड़ देना चाहती थी। भले ही तर्क यह दिया गया कि 1960 में उत्तराखंड मंडल नाम सिर्फ तीन जिलों चमोली, उत्तरकाशी और पिथौरागढ़ के लिए दिया गया था, जो कि चीन से लगी सीमा पर सैनिक हलचल के कारण बनाए गए थे। बाकी के जिले अंग्रेजों के शासनकाल से चली आ रही कुमायूं कमिश्नरी के तहत ही रखे गए। यह स्थिति 1969 तक रही और तब गढ़वाल मंडल और कुमायूं मंडल अपने पृथक स्वरूप में अस्तित्व में आए। यूपी विधानसभा में पारित भूमि प्रबंधन और बंदोबस्त विधेयक, कुमायूं एवं उत्तराखंड जमींदारी अंत अधिनियम-1960 और उत्तराखंड एवं कुमायूं भू-राजस्व बंदोबस्त नियमावली-1960 इस बात के उदाहरण हैं कि उत्तराखंड शब्द मुख्य रूप से गढ़वाल मंडल के लिए ध्वनित होता रहा है। इस तरह उत्तराखंड के उत्तरा और कुमायूं यानी कूर्मांचल से अंचल शब्द को शामिल करते हुए उत्तरांचल का निर्माण किया गया। बीजेपी के नेता इस दावे को भी गलत मानते हैं कि उत्तराखंड पौराणिक शब्द है। स्कंद पुराण में गढ़वाल क्षेत्र को केदारखंड और कुमायूं को मानस खंड कहा गया है। तार्किक आधार पर देखें तो उत्तरांचल नाम की ईजाद के पीछे बीजेपी की यह सिद्धांत गलत भी नहीं लगता, लेकिन लोगों में नाराजगी इस बात को लेकर रही कि गहरी छानबीन से आंचलिकता की यह थ्योरी पेश कर बीजेपी ने उत्तरांचल तो ढूंढ निकाला, पर राजधानी और पहले मुख्यमंत्री के सवाल पर आंचलिकता का यह आग्रह इकतरफा फैसलों का शिकार कैसे हो गया?
उत्तरांचल नाम बीजेपी ने 1980 के दशक के उत्तरार्ध में दिया। इसके पीछे उत्तराखंड के मुद्दे पर आंदोलन चला रहे दलों, खासकर उत्तराखंड क्रांति दल के समानांतर अपना आंदोलन चलाना था। 1994 के आते-आते पार्टी ने इस दिशा में काफी सफलता भी हासिल कर ली और वह नए राज्य का नाम उत्तरांचल रखने में सफल भी हुई, पर इसे आम लोगों के बीच स्वीकार्य बनाने में उसे सफलता नहीं मिल पाई। इसके संकेत 9 नवंबर 2000 की रात देहरादून में देश के इस 27वें राज्य के स्थापना समारोह में सरकार विरोधी नारों के रूप में साफ देखे जा सकते थे। छह वर्षों का मौजूदा अंतराल छोड़ दें तो अविभाजित यूपी के जमाने से चले आ रहे शासकीय दस्तावेजों में इस पर्वतीय भूभाग के लिए उत्तराखंड शब्द का ही उपयोग होता रहा है।
यूपी के पहाड़ी इलाकों में नए राज्य की मांग उठी ही इसलिए थी कि यहां की खास स्थितियां अलग प्रशासनिक इकाई की मांग करती थीं। यानी क्षेत्रीय विकास, आत्मनिर्भरता और बराबरी के आग्रह इस राज्य की रचना के मूल में हैं और 'उत्तराखंड' शब्द उसका प्रतीक है। यह नाम सिर्फ अपनी बुनियाद से ही नहीं जोड़ता, भविष्य के लिए जागरूक भी बनाता है। हालांकि विकास की समस्याओं का हल सिर्फ नाम बदलने से नहीं हो जाता, लेकिन राज्य के प्रति आस्था और वजूद से जुड़े संघर्ष की यह एक बड़ी जीत तो है ही।