Saturday, July 31, 2010
उत्तराखंड में एक ऐसा भी गाँव है जहा नही होते है पंचायत चुनाव
हिमाच्छादित गगनचुम्बी पर्वत श्रृंखलाओं से बीच चीन की सीमा से सटा भारत का एक गांव माणा आज भी अपनी पारंपरिक ओर प्राकृतिक विरासत को संजोए हुए है। समूचे देश में भले ही छोटे-छोटे चुनाव में प्रत्याशियों के बीच कांटे की टक्कर होती हो मगर यहां आज तक ग्राम पंचायत के लिए वोट नहीं डाले गए। सुनने में जरूर अटपटा लगता है कि विगत 100 साल से यहां ग्राम के मुखिया निर्विरोध चुनते आ रहे हैं।
चीन की सीमा से कुछ मील की दूरी पर बसा माणा देश का आखिरी गांव है।
हिन्दू आस्था के केन्द्र बदरीनाथ धाम से मात्र तीन किमी पैदल चलने के बाद पड़ने वाले इस गांव में नैसर्गिक सुन्दरता का अकूत खजाना है। माणा में ख्ेाती भी होती है और मंदिरों में पूजा भी। यहां का जीवन सोंधी खुशबू को समेटे है। नई बात यह है कि भोटया जनजाति के लगभग 300 परिवारों वाले इस गांव में प्रधान का चुनाव वोट डालकर नहीं होता। वर्ष 1962 के चीन युद्ध के बाद माणा को 1988 में नोटिफाईड एरिया बदरीनाथ से सम्बद्ध किया गया था। 1989 में पंचायत का दर्जा मिलने के बाद से आज तक यहां के निवासी अपने प्रधान का चयन आपसी सहमति से करते आ रहे हैं। यहां पहले प्रधान राम सिंह कंडारी से लेकर निवर्तमान ग्राम प्रधान पीताम्बर सिंह मोल्फा निर्विरोध चुने गए। यहां की आजीविका आलू की खेती,भेड़, बकरी पालन है। 1785 की जनसंख्या वाले छोटे से गांव में चंडिका देवी, काला सुन्दरी, राज-राजेश्वरी,भुवनेश्वरी देवी,नन्दा देवी,भवानी भगवती व पंचनाग देवता आदि के मन्दिरों में भोटया जनजाति की उपजातियों के लोगों का अधिकांश समय अपनी-अपनी परम्परा निभाने व धार्मिक अनुष्ठान में बीतता है। माणा में वन पंचायत भी गठित है जिसका विशाल क्षेत्रफल लगभग 90 हजार हेक्टेअर तक फैला है। यहां मौजूद भगवान बद्रीनाथ के क्षेत्रपाल घण्टाकर्ण देवता का मन्दिर अपनी अलग पहचान रखता है। कई खूबियों के बावजूद यहां भी कुछ कष्ट हैं। बद्रीनाथ के कपाट बन्द होने से कपाट खुलने तक पर यह पूरा क्षेत्र सेना के सुपुर्द रहता है। इस कारण ग्रामीणों को शीतकाल के 6 माह अपना जीवन सिंह धार, सैन्टुणा, नैग्वाड़, घिंघराण,नरौं, सिरोखुमा आदि स्थानों पर बिताना पड़ता है। दूसरी विडंबना यह है इन्टर तक के विद्यार्थी छह माह की शिक्षा माणा में लेते हैं और छह माह 100 किमी दूर गोपेश्वर के विद्यालयों में। यहां टेलिफोन, बिजली और पानी जैसी सुविधा तो हैं उपचार कराने को अस्पताल नहीं। ग्राम प्रधान पीताम्बर सिंह मोल्फा ने बताया कि देश-विदेश से बदरीनाथ पहुंचने वाले कई अति विशिष्ट व्यक्ति और मंत्रीगण माणा को देखने तो आते हैं लेकिन गांव के विकास को वादों के अलावा कुछ नहीं देते। देश विशेष पहचान रखने वाले इस गांव को अभी भी विकास का इंतजार है।........ जय पहाड़ तू महान
हिमांशु बिष्ट :- ९९९९ ४५१ २५०
Friday, July 30, 2010
-हिमांशु (Harish) बिष्ट
देवभूमि के रूप में विख्यात केदारघाटी के गावों में इन दिनों पांडव देवताओं को आमंत्रित करने के लिए बड़ी संख्या में स्थानीय लोग इकठ्ठा हो रहे हैं। केदारघाटी के परकण्डी,डमार,जगोठ, भौंसाल, जलई, बाड़ब, अखोड़ी, पुनाड़, रदमोला, सन्, तैला, धरकोट, सिलगढ सहित चार दर्जन से अधिक गांवों में अपने इन महान लोक देवताओं को जिमाने के लिए ‘पण्डवाणी मण्डाण` का आयोजन रचम सीमा पर है।
केदारघाटी में पांडवाणी गीतों के जानकारों और ढोलसारग के मर्मज्ञ लोकलावंतों की जुगलबंदी गढवाली संस्कृति को जानने वाले के लिए एक बेरहत निमंत्राण की प्रतीक बनती जा रही है। कई विदेशी मेहमान और शोधार्थियों को पांडव चौकों में देर रात तक आसानी से बैठा देखा जा रहा है।
केदारघाटी के अनेक गांवों में पांडव नृत्य के कलात्मक पक्ष को संजीवता और धार्मिक भावना के साथ जीवंत होता देखने का आकर्षण शब्दों में बयां किया जाना कठिन है। वर्षों पुरानी इस सांस्कृतिक थाती को उकेर देने के लिए जहां बुजुर्ग अनुभव दे रहे हैं वहीं नई पीढी भी उत्साहित होकर अपनी लोक विरासत को जीवंत करने में सहयोग देती नजर आ रही है। परम्पराओं को जीवित रखने लिए पुरानी और नई पीढी को यह अद्भुत समन्वय कला, संस्कृति के इस नवोदित राज्य को नई पहचान देने का सफल प्रयास साबित हो रहा है। पौराणिक मान्यता के अनुसार स्वर्गारोहण यात्रा पर जाते समय पांडव इस घाटी की सुंदरता पर मोहित हो गए थे। तब पांडवों द्वारा अपने बाण अर्थात शस्त्रों को केदारघाटी में फेंक दिया गया था और घोषणा की थी कि मोक्षप्राप्ति के बाद भी हम सूक्ष्म रूप में प्रतिवर्ष यहां आकर पअने भक्तों की कुशलक्षेम पूछेंगे।
इसी मान्यता के चलते साल दर साल केदारघाटी के गांवों में पाण्डव रअवतति होते हैं। उनके उन सूक्ष्म अवतारों के वाहक व्यक्ति नौर या पश्वा कहलाते हैं। मान्यता है कि ये कहीं भी रहें, पांडव अपनी पूजा के अवसर पर इन्हें अपने गांवों में खींच लाते हैं। गढवाल में दीपावली के ग्यारह दिन बाद मनाई जाने वाली एगास बग्वाल के दिन से पाण्डवों का दीया लगना शुरू हो जाता है और उन्हें बुलाने की स्थानीय रस्में प्रारंभ हो जाती हैं। इन देवताओं की गाथाएं ढोल-दमौ के साथ गाई जाती हैं। इसमें पांचों पांडवों का जन्म, दुर्योध्न द्वारा निकाला जाना, पांचाल देश पहुंचकर द्रोपदी स्वयंवर, नागकन्या से विवाह, महाभारत युद्ध बावन व्यूह की रचना राज्याभिषेक, स्वर्गारोहण आदि सभी लोक कथाओं के अनुसार सुनाई जाती है। यहां प्रत्येक पांडव या पात्र को अवतरित करने की अलग-अलग थाप अथवा ताल होती है। वास्तव में ढोली इसमें सबसे अहम भूमिका निभाता है। इसकी थापों पर ही मानवों पर पांडव देवताओं का अवतरण होता है।
पांडव प्रकट होकर मानव के सम्मुख कुछ विस्मय करने वाले शक्ति प्रदर्शन करते हैं। इनमें जलते अंगारों पर नृत्य, लोहे की सब्बलों को मोड़ना, पानी से भरी गारगों को पीना और ढेर के ढेर मिट्टी को निगलना जैसे कार्य होते हैं। इन्हें देखकर रअचज होता है। महीने भर तक गांवों में बारी-बारी से बावन व्यूहों की रचना भी की जाती है।
केदारघाटी का चक्रव्यूह, कमल व्यूह और बिन्दू व्यूह अपने में बेहद अहम माने जाते हैं। इस समय मोरूदार और गैडा कौथीग के साथ पाण्डव देवताओं को विदाई दी जाती है। रूमसी गांव में आयोजित पाण्डव नृत्य में ढोल संवाद कर रहे ७५ वर्षीय सज्जन दास का कहना है कि इस सम्पूर्ण नृत्य को ३६४ तालों से पूर्ण किया जाता है। इसका ज्ञान उनके पूर्वजों ने उन्हें दिया है जो पीढी दर पीढी आगे हस्तगत होता रहेगा।.......हिमांशु बिष्ट
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दो साल बाद सन 2012 में होने वाले उत्तराखंड के प्रसिद्ध लोक महोत्सव नंदा देवी राजजात की तैयारिया
यह लोक महोत्सव हर बारह साल बाद होता है। इसमें देश-विदेश से भी हजारों श्रद्धालु पहुंचते हैं। नंदा देवी राजजात समिति ने मुख्यमंत्री को इस आयोजन के लिए अलग से राजजात प्राधिकरण गठित करने का प्रस्ताव भेजा है, ताकि राजजात में शामिल होने वाले हजारों लोगों को राजजात के कठिन रास्तों में बेहतर सुविधाएं मिलें और राज्य के इस प्रमुख धार्मिक व सांस्कृतिक आयोजन की पहचान पूरी दुनिया में बने। गौरतलब है कि नंदा देवी राजजात में हर 12 साल बाद हजारों की तादाद में लोग हिमालय के बुग्यालों और हिम शिखरों की यात्रा करते हैं।
इसमें दुनिया की रहस्यमयी झीलों में से एक रूपकुंड समेत 18 हजार फुट की ऊंचाई पर स्थित ज्यूरांगली दर्रा भी शामिल है। इस दर्रे को पार करने के लिए हिमालय के त्रिशूल पर्वत के पास से होकर गुजरना पड़ता है। अधिकतर आम और पर्वतारोहण से अनजान लोग यह यात्रा करते हैं, ऐसे में दुर्घटना की आशंका बनी रहती है। पूर्व राजजात समिति के सचिव रहे भुवन नौटियाल कहते हैं कि इस बार यात्रियों की संख्या बढे़गी। इस वजह से अभी से ही इन स्थानों में आवाजाही और अन्य सुविधाओं के विस्तार के लिए प्रयास करने होंगे।
इस यात्रा में लोग नौटी से चार सींग वाले मेढ़े के लेकर नंदीकुंड तक जाते हैं। कई दिनों तक चलने वाले इस आयोजन में चार सींग वाले मेढ़े की अगुवाई में देव यात्राएं निकाली जाती हैं। इस दौरान तकरीबन 21 जगह पड़ाव डालने के बाद यह यात्रा हिमालय के हिमाच्छादित पर्वत की जड़ पर स्थित नंदीकुंड मंेे संपन्न होती है। नंदा देवी को पार्वती का रूप माना जाता है। उन्हें शिव के पास कैलाश पर्वत तक विदा करने के लिए यह यात्रा उत्सव के रूप में मनाई जाती है। इसमें कई गांव से देव डोलियां निकलती हैं। इन्हें जात कहा जाता है। ये छोटी-बड़ी देव डोलियां नौटी से निकलने वाली चार सींग वाले मेढ़े के साथ मिलते हुए हिमालय पहुंचती हैं।
यह आयोजन गढ़वाल के राज परिवारो
यात्रा इसी गांव के पास नौटी मे
नंदा राजजात के आयोजन में प्रमु
उसी दिन नंदा देवी राजजात 2012
हिमांशु बिष्ट
नंदा देवी पर्वत भारत की दूसरी एवं विश्व की २३वीं सर्वोच्च चोटी है।[७] इससे ऊंची व देश में सर्वोच्च चोटी कंचनजंघा है। नंदा देवी शिखर हिमालय पर्वत शृंखला में भारत के उत्तरांचल राज्य में पूर्व में गौरीगंगा तथा पश्चिम में ऋषिगंगा घाटियों के बीच स्थित है। इसकी ऊंचाई ७८१६ मीटर (२५,६४३ फीट) है। इस चोटी को उत्तरांचल राज्य में मुख्य देवी के रूप में पूजा जाता है।[८] इन्हें नंदा देवी कहते हैं।[९] नंदादेवी मैसिफ के दो छोर हैं। इनमें दूसरा छोर नंदादेवी ईस्ट कहलाता है।[७] इन दोनों के मध्य दो किलोमीटर लम्बा रिज क्षेत्र है। इस शिखर पर प्रथम विजय अभियान में १९३६ में नोयल ऑडेल तथा बिल तिलमेन को सफलता मिली थी। पर्वतारोही के अनुसार नंदादेवी शिखर के आसपास का क्षेत्र अत्यंत सुंदर है। यह शिखर २१००० फुट से ऊंची कई चोटियों के मध्य स्थित है। यह पूरा क्षेत्र नन्दा देवी राष्ट्रीय उद्यान घोषित किया जा चुका है। इस नेशनल पार्क को १९८८ में यूनेस्को द्वारा प्राकृतिक महत्व की विश्व धरोहर का सम्मान भी दिया जा चुका है।[७]
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[संपादित करें] पर्वतारोहण
इस हिमशिखर के मार्ग में आने वाले पहाड़ काफी तिरछे हैं। ऑक्सीजन की कमी के कारण खड़ी चढ़ाई पर आगे बढ़ना एक दुष्कर कार्य है। यही कारण है कि इस शिखर पर जाने के इच्छुक पर्वतारोहियों को १९३४ तक इस शिखर पर जाने का सही मार्ग नहीं मिल पाया था। इसका मार्ग ब्रिटिश अन्वेषकों द्वारा खोजा गया था।
- १९३६ में ब्रिटिश-अमेरिकी अभियान को नंदादेवी शिखर तक पहुंचने में सफलता मिली। इनमें नोयल ऑडेल तथा बिल तिलमेन शिखर को छूने वाले पहले व्यक्ति थे, जबकि नंदादेवी ईस्ट पर पहली सफलता १९३९ में पोलेंड की टीम को मिली।
- नंदादेवी पर दूसरा सफल अभियान इसके ३० वर्ष बाद १९६४ में हुआ था। इस अभियान में एन. कुमार के नेतृत्व में भारतीय टीम शिखर तक पहुंचने में सफल हुई। इसके मार्ग में कई खतरनाक दर्रे और हिमनद आते हैं।
- नंदादेवी के दोनों शिखर एक ही अभियान में छूने का गौरव भारत-जापान के संयुक्त अभियान को १९७६ में मिला था।
- १९८० में भारतीय सेना के जवानों का एक अभियान असफल रहा था।
- १९८१ में पहली बार रेखा शर्मा, हर्षवंति बिष्ट तथा चंद्रप्रभा ऐतवाल नामक तीन महिलाओं वाली टीम ने भी सफलता पायी।
नंदादेवी के दोनों ओर ग्लेशियर यानी हिमनद हैं। इन हिमनदों की बर्फ पिघलकर एक नदी का रूप ले लेती है।
पिंडारगंगा नाम की यह नदी आगे चलकर गंगा की सहायक नदी अलकनंदा में मिलती है। उत्तराखंड के लोग नंदादेवी को अपनी अधिष्ठात्री देवी मानते है। यहां की लोककथाओं में नंदादेवी को हिमालय की पुत्री कहा जाता है।[७] नंदादेवी शिखर के साये मे स्थित रूपकुंड तक प्रत्येक १२ वर्ष में कठिन नंदादेवी राजजात यात्रा श्राद्धालुओं की आस्था का प्रतीक है।[८][९] नंदादेवी के दर्शन औली, बिनसर या कौसानी आदि पर्यटन स्थलों से भी हो जाते हैं। अविनाश शर्मा, शेरपा तेनजिंग और एडमंड हिलेरी नामक पर्वतारोहियों ने एवरेस्ट को सबसे पहले विजय करने के अलावा हिमालय पर्वतमाला की कुछ और चोटियों पर विजय प्राप्त की थी। एक साक्षात्कार के दौरान शेरपा तेनजिंग कहा था कि एवरेस्ट की तुलना में नंदादेवी शिखर पर चढ़ना ज्यादा कठिन है।
Tuesday, July 27, 2010
आज जबकि उत्तराखंड एक अलग राज्य बन गया है जिसका हमे बरसों से सपना देखा था,आज उत्तराखंड को अलग राज्य बने हुए 10 साल होने जा रहे हैं लेकिन विकास के नाम पर तो अभी भी उत्तंचल एक राज्य नहीं लगता है !
अलग राज्य का सपना हमने देखा था की पहाडों का और पहाडों मैं राणे वाले लोगों का विकास हो लेकिन अभी तक इन नौ सालों मैं विकास के नाम पर विनास ही ज्यादा नजर आ रहा है,
पहाडों मैं रहने वाले लोग आज भी विकास के लिए तरस रहे हैं और विकास नामक उस लालटेन के उजाले का इन्तजार कर रहे हैं जिसको पाने के लिए हमने एक सुन्दर सा प्यारा सा सपने देखा था की हमारा भी एक घर हो
इन पहाडों मैं रहने वाले बच्चे आज उन रास्तों के किनारे बैठ कर सपने देखते हैं कि:-कब आएगा ओ दिन जिस दिन हम इन्नी रास्तोंकि जगह पर सड़कें देखेंगे और कब हम उन सडको पर पैदल चले कि वजाय बसों मैं स्कूल जायेंगे ,
क्या ये इन बच्चों का सपना सपना ही रहेगा या ये बचे भी एक दिन इन पहाडी रास्तों पर पैदल चलने कि वजाय स्कूल कि बसों मैं सफ़र करेंगे!उत्तरांचल राज्य गठन होने के बाद सहरों कस्बों और कुछ हद याक गावों के स्कूल और शिछा के माद्यम मैं कुछ हद तक विकास हुवा है,
पर्वतीय भागों मैं आजकल अछे स्कूल खुल गए हैं लेकिन आज भी उन पहाडों मैं जीवन ब्यतीत करने वाला एक गरीब आदमी अपने बच्चों को उन पब्लिक स्कूलों मैं नहीं पड़ा सकता है,उत्तराँचल के पहाड़ी छेत्रों के विद्यार्थी अपने घरों से ४- ५ किलोमीटर राज पैदल जाते हैं और ये उनका रोज का आना जाना होता है !
क्योंकि गरीब पहाड़ी परिआरों के पास और कोई चारा भी नहीं है वे अपने बचों को पब्लिक स्कूलों मैं पढ़ा सकें , यही कारण है कि पहाडों मैं रहने वाले बचों को हमेशा ४-या ५-किलोमीटर दूर जाना पड़ता है पड़ने के लिए ,प्रदेश कि राज्य सरकार का अर्थ एवं संख्या विभाग का आंकड़ों के अनुसार उत्तराँचल मैं आज भी गरीबी रेखा से नीचे जीवन ब्यतीत करने वाले परिवारों कि संख्या लगभग ७ लाख तक पहुच गयी है!
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Bisht G
Contt:- 9999 451 250