कुछ गड्वाली सबद और उनके अर्थ
१. अल्डो/अल्डु = ठन्डा
२. अचाण्चक/ चाण्चक= अचानक
३. अछ्लेगी= अस्त हो गया
४-अछ्लेणु= अस्त होना
५.अजाक=नासमझ
६. अन्ग्ल्यार- बर्र या ततैया
७. अठ्वाड- बलि देने के लिए आयोजित उत्सव
८- अन्ग्योणु- अपनाना
९- अलोणु-बिना नमक का
१०- अभरोसु- अविश्वास
११- अन्ग्वाल- अन्कमाल/ आलिग्न
१२- अलसिगे- मुर्झा गया/गइ
१३- आछरी- अप्सरा
१४- अल्याचार- लाचार
१५- अफु/अफ्वी- अपने आप
१६- अन्वार/अन्द्वार- सूरत
१७-अबेर- असमय/ देर
1८- अजाण- अनजाना
१९-अप्छाण्यु- अपरिचित
२०- असक्दी- असक्त/ गर्भ्वती स्त्री
२१-अखोड- अखरोट
२२-अडेथणू- किसी व्यक्ति / स्त्री को गन्त्व्य तक पहुचाने के लिए साथ जाना
२३- अडेथदारो- साथ जाने वाला
२४- अधखेचरू - अधकचरा/ अपरिपक्व
२५- अगेती- पहले/ फसल विशेस मे जो पहले पके- जैसे अगेते साटी/ अगेती कौणी
२६- अडी/ अड- जिद्द या अड्ना२
७- अन्तौ- अधैर्य
२८- अधीर्ज- अधीर
२९- अण्ब्य्वायी - अविवाहित
३०- अण्ब्यो- बिना विवाह किये
३१- अचैन्दु- जो चाहा न गया हो/ आइछित्त
३२- अफखौ- जो सिर्फ अपने खाने की इछ्छा रख्ता हो
३३- अलबला सलबल- आनन फानन मे
३४-अन्दयारू- अन्धेरा
३५- अन्ताज- अन्दाज
३६- अक्ड्नु- समाना या एड्ज्स्ट होना
३७- औ बटौ- राह चल्ती/ कुलहीन
३८-अयेडी- जिद
३९-अडाट- भैस आदि का रम्भाना
४०- अडाट- भिडाट= चीख पुकार
Wednesday, March 2, 2011
Tuesday, March 1, 2011
उत्तराखंडी सिनेमा को नहीं मिल पाई रफ्तार
राज कपूर, राजेश खन्ना, अमिताभ बच्चन, शाहरूख खान, मधुबाला तथा काजोल आदि कई हिंदी फिल्म कलाकारों के नाम हमारी जुंबा पर हर समय आते रहते हैं, लेकिन जब बात क्षेत्रीय सिनेमा की होती है तो नामों को गिनना तो दूर याद आना भी मुश्किल हो जाता है, लेकिन इसे किसी त्रासदी से कम नहीं माना जा सकता कि उ8ाराखंड मेंं क्षेत्रीय फिल्मों (गढ़वाली-कुमाऊंनी) के निर्माण एवं इससे जुड़े कलाकारों के लिए सरकार की ओर से कोई सहायता नहीं दी जा रही है।एक तरफ देश में प्रतिवर्ष ढाई सौ से तीन सौ फिल्मों का निर्माण करोड़ की लागत से हो रहा है। वहीं उ8ाराखंड सिनेमा अपनी रजत जयंती मनाने के बाद भी अभी तक र3तार नहीं पकड़ पाया है। अपने २५ सालों के सफर में कुछ गिनी-चुनी फिल्में हैं जो लोगों के दिलोंं पर अपनी छाप छोड़ पाई हैं। गढ़वाली-कुमाऊंनी सिनेमा के २५ सालों के इतिहास पर नजर दौड़ाएं तो सारी कहानी अपने आप ही सब कुछ बंया कर देती है। ४ मई, १९८३ को पराशर गौड़ ने गढ़वाली फिल्म जग्वाल से क्षेत्रीय सिनेमा को पहचान दिलाने का जो काम शुरू किया था, लेकिन इस दिशा में कोई उत्साह जनक परिणाम नहीं आ पाए। 1या कहते है क्षेत्रीय सिनेमा से जुड़े लोगतेरी सौ, हत्यां, गढ़वाली शोले का निर्माण करने वाले स्वपन फिल्म बैनर से जुडे मदन डुकलान ने बताया कि प्रदेश सरकार से कई बार क्षेत्रीय सिनेमा के बारे में अवगत कराया गया, लेकिन सरकार की ओर से कोई पहल नहंी की जा रही है। श्री डुकलान कहतेे हैं कि यदि सरकार प्रयास करती है तो क्षेत्रीय सिनेमा के माध्यम से जहां प्रतिभाओं को मंच मिलेगा वहीं कई लोगों को रोजगार भी प्राप्त होगा। राष्ट्रीय एवं क्षेत्रीय फिल्मोंंं एवं धारावाहिकों में अपने अभिनय का लोहा मनवा चुके रामेंद्र कोटनाला के अनुसार क्षेत्रीय सिनेमा में धन की कमी, संस्कृति संवद्र्धन की स्पष्ट नीति का न होना तथा सिनेमा हालों की कमी (दूरस्थ क्षेत्रोंं में ) सरकार की ओर से कोई सहायता का न मिलना ही प्रमुख कारण है।
फिर मुड़कर नहीं देखा उत्तराखंड
देहरादून उत्तराखंड के लोग अपने सांसदों की तलाश में हैं। जब से वे उत्तराखंड से राज्यसभा के लिए चुने गए हैं, लोगों ने उन्हें देखा तक नहीं है। यह बात अलग है कि इन सांसदों की विकास निधि निरंतर आ रही है, लेकिन उसकी बंदरबांट कुछ ऊंची पहुंच वालों के माध्यम से ही हो रही है। कांग्रेस शासनकाल में उत्तराखंड कोटे से पहले कै. सतीश शर्मा उसके बाद सत्यव्रत चतुर्वेदी राज्यसभा के लिए चुने गए थे। राज्यसभा के लिए बाहरी नेताओं को चुने जाने का दबी जुबान में विरोध भी हुआ था, लेकिन हाईकमान के सामने यह नक्कारखाने में तूती की आवाज साबित हुई। चुने जाने के बाद उन्होंने बड़े-बड़े दावे किए थे। उत्तराखंड के प्रतिनिधित्व की कीमत दिल्ली में चुकाने का वादा करने वाले उत्तराखंड की तरफ एक बार भी लौटकर नहीं आए। हालांकि कांग्रेस नेता रामशरण नौटियाल दावा करते हैं कि सतीश शर्मा दून, उत्तरकाशी तथा टिहरी में कई बार आ चुके हैं। यह तय है कि इन जन प्रतिनिधियों को उत्तराखंड से कोई लेना देना नहीं है। ये सिर्फ हाईकमान की मर्जी से राज्य पर थोपे गए हैं लेकिन जब तक ये उत्तराखंड के जनप्रतिनिधि हैं, इनकी सांसद निधि पर तो उत्तराखंड का हक है। सतीश शर्मा 04-05 में चुने गए थे। इस वित्तीय वर्ष में उनकी निधि से 88.316 लाख रुपये मंजूर हुए थे। इसमें देहरादून को सबसे अधिक 22.90 लाख, टिहरी को 20.80 लाख, उत्तरकाशी को 17.50 लाख, नैनीताल को 11.986 लाख, ऊधमसिंह नगर को 9.58 लाख और चमोली को 5.55 लाख रुपये दिए गए हैं। कन्या कुमारी को 11 लाख दिए गए हैं। वर्ष 05-06 में भी 190.200 लाख रुपये श्री शर्मा की निधि से स्वीकृत हुए हैं। इस वर्ष भी देहरादून, उत्तरकाशी, टिहरी को टॉप प्रायरिटी दी गई। हरिद्वार तथा चमोली जिले को कुछ नहीं मिला, अन्य जिलों के हिस्से कुछ आया है। 06-07 में भी वही कहानी दोहराई गई है। 07-08 में देहरादून के हिस्से कम आया है लेकिन उत्तरकाशी और टिहरी फिर भी आगे रहे हैं। सत्यव्रत चतुर्वेदी 06-07 में राज्य सभा के लिए चुने गए। इस वर्ष उन्होंने 196.9 लाख रुपये मंजूर किए। पौड़ी, देहरादून, ऊधमसिंह नगर, अल्मोड़ा उनकी सूची में सबसे ऊपर हैं। वर्ष 07-08 में उन्होंने दो करोड़ से अधिक की स्वीकृतियां दी। नैनीताल, पौड़ी, रुद्रप्रयाग और हरिद्वार को उन्होंने प्राथमिकता दी।
संघर्ष स्वभाव है पर्वतीय नारी का
देश-दुनिया के लिए आठ मार्च का दिन महिलाओं के संघर्ष को याद करने का दिन है, लेकिन देवभूमि का तो अस्तित्व ही महिलाओं पर टिका है। सामाजिक सरोकारों से जुड़ा शायद ही कोई क्षेत्र होगा, जहां उत्तराखंडी महिलाओं ने प्रतिमान न स्थापित किए हों। पर्वतीय नारी के लिए संघर्ष कोई तमगे हासिल करने का जरिया नहीं है। संघर्ष तो उसके स्वभाव में है और इसी जुझारू प्रवृत्ति ने उसे दुनियाभर में अलग पहचान दी है। पहाड़ का भूगोल जितना जटिल है, अन्य परिस्थितियां भी उसी के अनुरूप जटिल रही हैं। यही वजह है कि यहां ऐतिहासिक घटनाओं की जानकारी लोकगीतों व पंवाड़ों में ही ज्यादा मिलती है। इतिहास में पहले-पहल जिस वीर नारी का उल्लेख मिलता है, वह है रानी कर्णावती, जिसने मुगल बादशाह औरंगजेब की सेना से लोहा लिया। वीरबाला तीलू रौतेली, मालू रौतेली आदि वीरांगनाओं का इतिहास को भी कालांतर में प्रचलित लोक गाथाओं से ही लिपिबद्ध किया गया। वर्ष 1805 से लेकर 1815 तक उत्तराखंड के अधिकांश हिस्से में गोरख्याणी का राज रहा और इसकी सर्वाधिक त्रासदी यहां महिलाओं ने ही झेली। गोरखा आक्रमण में अपनी जान देकर लोगों की जान बचाने वाली कोलिण जगदेई तो आज लोकदेवी के रूप में पूजी जाती हैं। आजादी के आंदोलन में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेने वाली बिशनी देवी शाह को कौन भुला सकता है। यह वह महिला हैं जिन्होंने आजादी के लिए जेल जाने वाली उत्तराखंड की प्रथम महिला बनने का गौरव हासिल किया। चिपको आंदोलन की सूत्रधार रैणी गांव की गौरा देवी का नाम तो पूरी दुनिया में आदर के साथ लिया जाता है। उन्होंने स्वयं स्कूल का मुंह नहीं देखा, लेकिन दुनिया के लिए उनका पूरा जीवन ही एक किताब बन गया।साठ के दशक में गढ़वाल के शराब विरोधी आंदोलन को स्वर देने वाली टिंचरी माई स्वयं में संघर्ष की अनूठी मिसाल हैं। 19 साल की उम्र में विधवा होने पर भी वह टूटी नहीं। टिंचरी माई ने शराब की दुकानें जलाकर इसके खिलाफ संघर्ष का बिगुल फूंका। जेल होने पर भी उन्होंने ऐलान किया मैं यहीं रुकने वाली नहीं हूं। पहाड़ी महिला जानती है कि जल, जंगल, जमीन के बिना मनुष्य का कोई अस्तित्व नहीं है। इसीलिए वह पहाड़ी समाज के घर यानि जल, जंगल और जमीन की लड़ाई में पहली पांत में रही है। नशा नहीं रोजगार दो, टिहरी के विस्थापितों के पुनर्वास का आंदोलन बगैर महिलाओं की भूमिका के शायद ही मुकाम हासिल कर पाते। उत्तराखंड आंदोलन में तमाम घरेलू कार्यो के बावजूद महिलाओं की भागीदारी अविश्र्वसनीय है। सबसे पहले शहीद होने वालों में बेलमती चौहान, हंसा धनाई की बहादुरी भला भुलाई जा सकती है। यह तो सिर्फ बानगी है। पहाड़ी महिला का संघर्ष तो कभी न खत्म होने वाली गाथा है। वह सिर्फ घर-परिवार में ही नहीं जूझती, खेतों में हल भी चलाती है। जंगलों में गुलदार, बाघ, भालू, सूअर जैसे हिंसक जीवों से संघर्ष तो मानो उसकी जीवनचर्या का हिस्सा बन गया है। फिर भी लगता है कि पर्वतीय नारी आज भी वहीं खड़ी है, जहां वह दशकों पहले थी। लड़ के लेंगे, भिड़ के लेंगे, छीन के लेंगे उत्तराखंड का नारा बुलंद करने वाली पहाड़ी महिला का असमानता मुक्त बेहतर समाज का सपना अभी भी दूर है।
चिपको आंदोलन की नेत्रीअपने ही गांव में बेगानी हुई गौरा गौरा देवी
जोशीमठ के समीप स्थित है चिपको आंदोलन की नेत्री गौरा देवी का गांव रैणी -वर्ष 1974 में यहीं से शुरू किया था वृक्षों के संरक्षण का अभियान -गौरा के निधन के बाद सरकारी मशीनरी ने नहीं ली गांव की सुध , गोपेश्वर(चमोली): रैणी गांव का नाम आते ही जेहन में उभर आती है उस महिला की तस्वीर, जिसने गंवई होते हुए भी एक ऐसे आंदोलन का सूत्रपात किया, जो अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर उसकी पहचान बन गया। बात हो रही है चिपको आंदोलन की नेत्री गौरा देवी की। प्रथम महिला वृक्षमित्र के पुरस्कार से नवाजी गई गौरा देवी ने न सिर्फ जंगलों को कटने से बचाया, बल्कि वन माफियाओं को भी वापस लौटने पर मजबूर कर दिया। जीवनपर्यंत गौरा लोगों में पेड़ों के संरक्षण की अलख जगाती रहीं, लेकिन उन्होंने कभी सोचा भी नहीं होगा कि उनके निधन के बाद खुद उनके ही गांव में सरकारी मशीनरी व चंद निजी स्वार्थों के लोभी लोग उनके सपनों का गला घोंट देंगे। आलम यह है कि गांव के नजदीक ही जलविद्युत परियोजना के लिए सुरंगों का ताबड़तोड़ निर्माण किया जा रहा है। इससे गांव के लोग पलायन को मजबूर हो गए हैं। जोशीमठ से करीब 27 किमी दूर स्थित है रैणी गांव। 26 मार्च 1974 का दिन इस गांव को इतिहास में अमर कर गया। सरकारी अधिकारियों की नजर लंबे समय से गांव के नजदीक स्थित जंगलों पर थी। यहां पेड़ों के कटान के लिए साइमन कंपनी को ठेका दिया गया था, जिसके तहत सैकड़ों मजदूर व ठेकेदार गांव पहुंच गए थे। गांव वालों के विरोध को देखते हुए अधिकारियों ने साजिश के तहत उन्हें चमोली तहसील में वार्ता के लिए बुलाया और पीछे से ठेकेदारों को पेड़ कटान के लिए गांव भेज दिया गया, लेकिन उनका यह कदम आत्मघाती साबित हुआ। गांव में मौजूद गौरा देवी को जैसे ही खबर मिली वह ठेकेदारों के सामने आ गई और पेड़ पर चिपक गई। देखादेखी अन्य महिलाओं ने भी ऐसा ही किया। ठेकेदारों, मजदूरों ने उन्हें हटाने की बहुत कोशिश की, लेकिन एक नहीं चली। इस तरह चिपको आंदोलन का सूत्रपात हुआ और गौरा ने 2451 पेड़ों को कटने से बचा दिया। चिपको जननी के नाम से विख्यात गौरा का कहना था कि 'जंगल हमारा मायका है हम इसे उजाडऩे नहीं देंगे।' जीवन भर वृक्षों के संरक्षण को संघर्ष करते हुए चार जुलाई 1991 को तपोवन में उनका निधन हो गया। इससे पूर्व भारत सरकार ने वर्ष 1986 में गौरा देवी को प्रथम महिला वृक्ष मित्र पुरस्कार से नवाजा था। मृत्यु से पूर्व गौरा ने कहा 'मैंने तो शुरुआत की है, नौजवान साथी इसे और आगे बढाएंगे', लेकिन वक्त बदलने के साथ लोग गौरा के सपनों से दूर होते गए। सरकार ने गौरा के गांव में उनके नाम से एक 'स्मृति द्वार' बनाकर खानापूर्ति तो की, लेकिन पिछले 17 साल में शायद ही कभी कोई मौका आया हो, जब इस पर्यावरण हितैषी की याद में कभी सरकारी मशीनरी ने दो पौधे भी रोपे हों। हद तो तब हो गई, जब गौरा के गांव के जनप्रतिनिधियों ने ही उनके अभियान से मुंह मोड़ लिया। स्थिति यह है कि गांव में गौरा के नाम पर बनाए गए मिलन स्थल को गांव के नजदीक बनाए जा रहे बांध की कार्यदायी संस्था 'ऋषिगंगा पावर प्रोजेक्ट' को किराए पर दे दिया गया है। इतना ही नहीं, गांव के नजदीक इन दिनों सुरंगों का निर्माण कार्य जोरों पर है, जिसके लिए पेड़ भी काटे जा रहे हैं। परियोजना निर्माण के लिए हो रहे धमाकों से कई घरों में दरारें पड़ गई हैं। ऐसे में लोग यहां से पलायन करने को मजबूर हो गए हैं। पूर्व ग्राम प्रधान मोहन सिंह राणा व्यथित स्वर में कहते हैं कि सरकार ने गांव को हमेशा ही नजर अंदाज किया। उन्होंने यह भी कहा कि गौरा के सपनों को पूरा करने के लिए दोबारा चिपको जैसे आंदोलन शुरू करने की जरूरत है। गौरा देवी के पुत्र चंद्र सिंह व ग्रामीण गबर सिंह का कहना है कि सुरंग निर्माण को रोकने व गांव की अन्य समसयओं के बाबत कई बार शासन-प्रशासन से गुहार कर चुके हैं, लेकिन कोई सुनवाई नहीं हो रही।॥
"हिमांशु बिष्ट"
"हिमांशु बिष्ट"
अस्तित्व को छटपटातीं उत्तराखंड की बोलियां
हल्द्वानी जिस तरह से राज्य में पर्वतीय क्षेत्रों से पलायन बढ़ रहा है और बाजार पर वैश्वीकरण व पाश्चात्यीकरण का प्रभुत्व हो गया है, उससे उत्तराखंड की बोलियां भी अपने अस्तित्व को छटपटाने लगी हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ ने भी कहा है कि कुमाऊंनी व गढ़वाली बोलियां विलुप्त होने के कगार पर हैं। इन्हें लिपिबद्ध करने के लिए राज्य गठन के 10 वर्षो में भी सरकार ने ध्यान देने की कोई जरूरत नहीं समझी। अंतर्राष्ट्रीय मातृ भाषा दिवस को लेकर उत्तराखंड से जुड़े चंद लोग अपनी मातृ भाषा कुमाऊंनी, गढ़वाली व जौनसारी को बचाने के लिए सोशल नेटवर्किंग साइट्स में माहौल बनाने का प्रयास तो कर रहे हैं, लेकिन हकीकत में अभी तक इन बोलियों की कोई लिपि तक नहीं बन सकी है। स्थिति यह है कि यह बोलियां अपने अस्तित्व के लिए ही कसमसा रही हैं। चंद कवियों, लेखकों व ब्लागरों के जरिये इन बोलियों को सहेजने के साथ ही युवा पीढ़ी तक पहुंचाने का प्रयास किया जा रहा है। लेकिन इसमें राज्य सरकार कोई विशेष पहल करती हुई नजर नहीं आ रही है। हालांकि उत्तराखंड में दर्जनों बोलियां हैं, जिनमें कुमाऊंनी, गढ़वाली व जौनसारी प्रमुख हैं। इन्हें संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल किये जाने की आवश्यकता पर भी जोर दिया जा रहा है। धाद संस्था इन बोलियों के संरक्षण के लिए प्रयासरत है। समन्वयक तन्मय ममगई बताते हैं कि इसके लिए समय-समय पर कवि सम्मेलन व भाषा पर विमर्श किया जा रहा है। वरिष्ठ साहित्यकार लक्ष्मण सिंह बिष्ट बटरोही का कहना है कि क्षेत्रीयता को ध्यान में रखते हुए सरकार का दायित्व बन जाता है कि क्षेत्रीय भाषाओं को संरक्षित करने में योगदान दे। उत्तराखंड में थारुों, वनरावतों व भोटिया जनजातियों की बोलियां अस्तित्व में नहीं हैं तो इसके लिए भी दोषी राज्य सरकार है। संस्कृत को द्वितीय राजभाषा का दर्जा देने के बजाय कुमाऊंनी व गढ़वाली को द्वितीय राजभाषा का दर्जा मिलना चाहिये। प्रसिद्ध अनुवादक व कवि अशोक पाण्डे का कहना है कि सबसे पहले कुमाऊंनी व गढ़वाली बोलियों को लिपिबद्ध करने की आवश्यकता है। इसके लिए सरकार के अलावा लोग भी उदासीन हैं। साहित्यकार दिनेश कर्नाटक का कहना है कि मातृभाषा को शिक्षा के साथ जोड़ा जाना चाहिये। कुमाऊंनी कवि जगदीश जोशी कहते हैं कि कुमाऊंनी ही नहीं हिन्दी पर ही संकट दिख रहा है। इसे संरक्षित करने के लिए युवाओं को प्रोत्साहित करने की जरूरत है।
भीम पांव : जहां मंदाकिनी ने ली थी पांडवों की परीक्षा
गुप्तकाशी। केदारघाटी में बिखरे पांडवकालीन कई मठ-मंदिर, तरणताल तथा अस्त्र-शस्त्रों को देखने के लिए प्रतिवर्ष सैकड़ों पर्यटक व तीर्थयात्री आकर वशीभूत होकर अध्यात्म में खो जाते हैं। वहीं कईं ऐसे पांडवकालीन अवशेष भी क्षेत्र में मौजूद हैं, जिनके बारे में आज तक किसी को भी मालूम नहीं है। ऐसा ही एक अवशेष मस्ता-कालीमठ पैदलमार्ग के अन्तर्गत रिड़कोट पुल के दोनों ओर स्थित विशाल शिलाखंडों पर भीम पांव है। लगभग डेढ़ फीट लम्बी तथा आधा फीट चौड़ी इन आकृतियों को देखकर सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि ये पैर पांडवकालीन किसी मनुष्य के रहे होंगे। पांचों अंगुलियों की आकृतियों को अपने में समेटे इन पैरों के बारे में जनश्रुति है कि जब गोत्र हत्या के पाप से उऋण होने के लिए पांडव केदारनाथ धाम को गमन कर रहे थे तब इसी मार्ग पर बहने वाली पतित पावनी मंदाकिनी नदी पांडवों की परीक्षा लेने के लिए अपने उग्र रूप में आ गयी। भयंकर गर्जना को देखकर पांडवों चिंतित हो गए। तब पांडव नदी पार करने के बारे में विचार करने लगे। नदी के उग्र स्वर तथा वेग को देखकर महाबलि भीम को गुस्सा आ गया और उन्होंने भयंकर गर्जना के साथ ही अपना रौद्र रूप रख दिया। बताया जाता है कि विशालकाय भीम ने द्रोपदी सहित चारों भाइयों को अपने कंधे में बिठाकर नदी के दोनों ओर स्थित विशाल शिलाखंडों पर पैर टिकाकर नदी को पार कर लिया। इस अदम्य साहस को देखकर नदी ने सुंदर स्री का रूप लेकर पांडवों के पैरों में गिरकर उनसे आशीर्वाद लिया। तत्पश्चात अपने पूर्व वेग में बहने लगी। नदी के दूसरी ओर महाबली भीम ने अपना आकार सूक्ष्म कर चार भाइयों तथा द्रोपदी को सुरक्षित धरती पर उतारा। इसी मार्ग से होते हुए पांडव मोक्ष को प्राप्त करने के लिए केदारनाथ स्थित स्वर्गारोहणी में पहुंच गए। माना जाता है कि तब से लेकर आज तक लगभग दो हजार वर्ष गुजरने के बाद भी दोनों शिलाखंड अपनी जगह पर स्थापित हैं। अंकित महाबलि भीम के पैरों के निशान को देखने के लिए कुछ लोग अवश्य ही इस पैदलमार्ग का रुख करके नतमस्तक होते हैं। प्रधान कालीमठ अब्बल सिंह राणा, पंडित वेंकंठरमरण सेमवाल, आनंदमणी सेमवाल आदि ने कहा कि मस्ता से कालीमठ प्राचीन पैदलमार्ग में पांडवकालीन कई अवशेष स्थित हैं। ऐसे में लोक निर्माण विभाग को इस क्षतिग्रस्त मार्ग की दशा सुधारने के लिए कारगर उठाने चाहिए। वहीं लोनिवि के अधिशासी अभियंता राजेश कुमार पंत ने बताया कि अलौकिक सुंदरता समेटे प्रसिद्ध सिद्धपीठ कालीमठ तक पहुंचाने वाला मस्ता-कालीमठ पैदलमार्ग की दशा सुधारने के लिए वे प्रतिबद्ध हैं। जल्द ही इस मार्ग के सुदृढ़ीकरण के लिए पहल की जा रही है, जिससे पर्यटक आकर इस पैदलमार्ग पर स्थित कई पांडवकालीन अवशेषों को देख सकें। गुप्तकाशी : मस्ता-कालीमठ पैदल मार्ग पर स्थित शिलाखंड पर भीम के पैर का निशान
"Himanshu Bisht"
Monday, February 28, 2011
राज्य गठन के दस साल बाद भी ऐसी शर्मनाक है जिसको देख कर गहरा दुख होता है
ताउम्र वनवास भोग रहे हैं उत्तराखण्डी
15 से 21 जुलाई 2010 वाले प्यारा उत्तराखण्ड समाचार पत्रा में प्रकाशित
भगवान राम को तो केवल 14 साल का वनवास भोगना पड़ा था। परन्तु उत्तराखण्ड के 60 लाख सपूतों को यहां के सत्तासीन कैकईयों के कारण पीढ़ी दर पीढ़...ी का वनवास झेलना पड़ रहा है। अंग्रेजी शासनकाल के दौरान से यहां के लोग अपने घर परिजनों के खुशह...ाली के लिए दूर प्रदेश में रोजगार की तलाश में निकले। देश आजाद हुआ परन्तु शासकों ने यहां के विकास पर ध्यान न देने के कारण यहां से लोगों का पलायन रोजी रोटी व अच्छे जीवन की तलाश के कारण होता रहा। इसी विकास के लिए लोगों ने ऐतिहासिक संघर्ष करके व अनैकों शहादतें दे कर पृथक राज्य भी बनवाया। परन्तु यहां के शासकों की मानसिकता पर रत्ती भर का अंतर नहीं आया। उत्तराखण्ड का जी भर कर दौहन करना यहां के नौकरशाही व राजनेताओं ने अपना प्रथम अध्किार समझा। मेरा मानना रहा है कि पलायन प्रतिभा का हो कोई बात नहीं, परन्तु पेट का पलायन बहुत शर्मनाक है। पेट के पलायन को रोकने के लिए ही पृथक राज्य का गठन किया गया था। प्रदेश का समग्र विकास हो व प्रदेश का स्वाभिमान जीवंत रहे। परन्तु स्थिति आज राज्य गठन के दस साल बाद भी ऐसी शर्मनाक है जिसको देख कर गहरा दुख होता है। मेरे इन जख्मों को गत सप्ताह धेनी की शादी प्रकण ने पिफर हवा दी।
Sabhar uttarkahand vichar..
15 से 21 जुलाई 2010 वाले प्यारा उत्तराखण्ड समाचार पत्रा में प्रकाशित
भगवान राम को तो केवल 14 साल का वनवास भोगना पड़ा था। परन्तु उत्तराखण्ड के 60 लाख सपूतों को यहां के सत्तासीन कैकईयों के कारण पीढ़ी दर पीढ़...ी का वनवास झेलना पड़ रहा है। अंग्रेजी शासनकाल के दौरान से यहां के लोग अपने घर परिजनों के खुशह...ाली के लिए दूर प्रदेश में रोजगार की तलाश में निकले। देश आजाद हुआ परन्तु शासकों ने यहां के विकास पर ध्यान न देने के कारण यहां से लोगों का पलायन रोजी रोटी व अच्छे जीवन की तलाश के कारण होता रहा। इसी विकास के लिए लोगों ने ऐतिहासिक संघर्ष करके व अनैकों शहादतें दे कर पृथक राज्य भी बनवाया। परन्तु यहां के शासकों की मानसिकता पर रत्ती भर का अंतर नहीं आया। उत्तराखण्ड का जी भर कर दौहन करना यहां के नौकरशाही व राजनेताओं ने अपना प्रथम अध्किार समझा। मेरा मानना रहा है कि पलायन प्रतिभा का हो कोई बात नहीं, परन्तु पेट का पलायन बहुत शर्मनाक है। पेट के पलायन को रोकने के लिए ही पृथक राज्य का गठन किया गया था। प्रदेश का समग्र विकास हो व प्रदेश का स्वाभिमान जीवंत रहे। परन्तु स्थिति आज राज्य गठन के दस साल बाद भी ऐसी शर्मनाक है जिसको देख कर गहरा दुख होता है। मेरे इन जख्मों को गत सप्ताह धेनी की शादी प्रकण ने पिफर हवा दी।
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