Thursday, February 24, 2011

स्कन्द पुराण में हिमालय को पाँच भौगोलिक क्षेत्रों में विभक्त किया गया है:-

स्कन्द पुराण में हिमालय को पाँच भौगोलिक क्षेत्रों में विभक्त किया गया है:-

खण्डाः पञ्च हिमालयस्य कथिताः नैपालकूमाँचंलौ।
केदारोऽथ जालन्धरोऽथ रूचिर काश्मीर संज्ञोऽन्तिमः॥

अर्थात हिमालय क्षेत्र में नेपाल, कुर्मांचल (कुमाऊँ) , केदारखण्ड (गढ़वाल), जालन्धर (हिमाचल प्रदेश), और सुरम्य कश्मीर पाँच खण्ड है।<७>

एक शिलाशिल्प जिसमें महाराज भगीरथ को अपने ६०,००० पूर्वजों की मुक्ति के लिए पश्चाताप करते दिखाया गया है।

पौराणिक ग्रन्थों में कुर्मांचल क्षेत्र मानसखण्ड के नाम से प्रसिद्व था। पौराणिक ग्रन्थों में उत्तरी हिमालय में सिद्ध गन्धर्व, यक्ष, किन्नर जातियों की सृष्टि और इस सृष्टि का राजा कुबेर बताया गया हैं। कुबेर की राजधानी अलकापुरी (बद्रीनाथ से ऊपर) बताई जाती है। पुराणों के अनुसार राजा कुबेर के राज्य में आश्रम में ऋषि-मुनि तप व साधना करते थे। अंग्रेज़ इतिहासकारों के अनुसार हुण, सकास, नाग, खश आदि जातियाँ भी हिमालय क्षेत्र में निवास करती थी। पौराणिक ग्रन्थों में केदार खण्ड व मानस खण्ड के नाम से इस क्षेत्र का व्यापक उल्लेख है। इस क्षेत्र को देव-भूमि व तपोभूमि माना गया है।

मानस खण्ड का कुर्मांचल व कुमाऊँ नाम चन्द राजाओं के शासन काल में प्रचलित हुआ। कुर्मांचल पर चन्द राजाओं का शासन कत्यूरियों के बाद प्रारम्भ होकर सन १७९० तक रहा। सन १७९० में नेपाल की गोरखा सेना ने कुमाऊँ पर आक्रमण कर कुमाऊँ राज्य को अपने आधीन कर लिया। गोरखाओं का कुमाऊँ पर सन १७९० से १८१५ तक शासन रहा। सन १८१५ में अंग्रेंजो से अन्तिम बार परास्त होने के उपरान्त गोरखा सेना नेपाल वापस चली गई किन्तु अंग्रेजों ने कुमाऊँ का शासन चन्द राजाओं को न देकर ईस्ट इण्डिया कम्पनी के अधीन कर दिया। इस प्रकार कुमाऊँ पर अंग्रेजो का शासन १८१५ से आरम्भ हुआ।

संयुक्त प्रांत का भाग उत्तराखण्ड,

ऐतिहासिक विवरणों के अनुसार केदार खण्ड कई गढ़ों (किले) में विभक्त था। इन गढ़ों के अलग-अलग राजा थे जिनका अपना-अपना आधिपत्य क्षेत्र था। इतिहासकारों के अनुसार पँवार वंश के राजा ने इन गढ़ों को अपने अधीनकर एकीकृत गढ़वाल राज्य की स्थापना की और श्रीनगर को अपनी राजधानी बनाया। केदार खण्ड का गढ़वाल नाम तभी प्रचलित हुआ। सन १८०३ में नेपाल की गोरखा सेना ने गढ़वाल राज्य पर आक्रमण कर अपने अधीन कर लिया। यह आक्रमण लोकजन में गोरखाली के नाम से प्रसिद्ध है। महाराजा गढ़वाल ने नेपाल की गोरखा सेना के अधिपत्य से राज्य को मुक्त कराने के लिए अंग्रेजो से सहायता मांगी। अंग्रेज़ सेना ने नेपाल की गोरखा सेना को देहरादून के समीप सन १८१५ में अन्तिम रूप से परास्त कर दिया। किन्तु गढ़वाल के तत्कालीन महाराजा द्वारा युद्ध व्यय की निर्धारित धनराशि का भुगतान करने में असमर्थता व्यक्त करने के कारण अंग्रेजों ने सम्पूर्ण गढ़वाल राज्य राजा गढ़वाल को न सौंप कर अलकनन्दा-मन्दाकिनी के पूर्व का भाग ईस्ट इण्डिया कम्पनी के शासन में सम्मिलित कर गढ़वाल के महाराजा को केवल टिहरी जिले (वर्तमान उत्तरकाशी सहित) का भू-भाग वापस किया। गढ़वाल के तत्कालीन महाराजा सुदर्शन शाह ने २८ दिसंबर १८१५ को<८> टिहरी नाम के स्थान पर जो भागीरथी और भिलंगना नदियों के संगम पर छोटा सा गाँव था, अपनी राजधानी स्थापित की।<९> कुछ वर्षों के उपरान्त उनके उत्तराधिकारी महाराजा नरेन्द्र शाह ने ओड़ाथली नामक स्थान पर नरेन्द्रनगर नाम से दूसरी राजधानी स्थापित की। सन १८१५ से देहरादून व पौड़ी गढ़वाल (वर्तमान चमोली जिला और रुद्रप्रयाग जिले का अगस्त्यमुनिऊखीमठ विकास खण्ड सहित) अंग्रेजो के अधीन व टिहरी गढ़वाल महाराजा टिहरी के अधीन हुआ।<१०><११><१२>

भारतीय गणतन्त्र में टिहरी राज्य का विलय अगस्त १९४९ में हुआ और टिहरी को तत्कालीन संयुक्त प्रान्त (उ.प्र.) का एक जिला घोषित किया गया। १९६२ के भारत-चीन युद्ध की पृष्ठ भूमि में सीमान्त क्षेत्रों के विकास की दृष्टि से सन १९६० में तीन सीमान्त जिले उत्तरकाशी, चमोलीपिथौरागढ़ का गठन किया गया। एक नए राज्य के रुप में उत्तर प्रदेश के पुनर्गठन के फलस्वरुप (उत्तर प्रदेश पुनर्गठन अधिनियम, २०००) उत्तराखण्ड की स्थापना ९ नवंबर २००० को हुई। इसलिए इस दिन को उत्तराखण्ड में स्थापना दिवस के रूप में मनाया जाता है।

सन १९६९ तक देहरादून को छोड़कर उत्तराखण्ड के सभी जिले कुमाऊँ मण्डल के अधीन थे। सन १९६९ में गढ़वाल मण्डल की स्थापना की गई जिसका मुख्यालय पौड़ी बनाया गया। सन १९७५ में देहरादून जिले को जो मेरठ प्रमण्डल में सम्मिलित था, गढ़वाल मण्डल में सम्मिलित कर लिया गया। इससे गढवाल मण्डल में जिलों की संख्या पाँच हो गई। कुमाऊँ मण्डल में नैनीताल, अल्मोड़ा, पिथौरागढ़, तीन जिले सम्मिलित थे। सन १९९४ में उधमसिंह नगर और सन १९९७ में रुद्रप्रयाग , चम्पावतबागेश्वर जिलों का गठन होने पर उत्तराखण्ड राज्य गठन से पूर्व गढ़वाल और कुमाऊँ मण्डलों में छः-छः जिले सम्मिलित थे। उत्तराखण्ड राज्य में हरिद्वार जनपद के सम्मिलित किये जाने के पश्चात गढ़वाल मण्डल में सात और कुमाऊँ मण्डल में छः जिले सम्मिलित हैं। १ जनवरी २००७ से राज्य का नाम "उत्तराञ्चल" से बदलकर "उत्तराखण्ड" कर दिया गया है।

य़ू मेसेज खास वूं लूखों कुन चा II" जू आज गढ़वाल की संस्कृति ते भूली गेनी ,

य़ू मेसेज खास वूं लूखों कुन चा II"
जू आज गढ़वाल की संस्कृति ते भूली गेनी ,
अपरी देवभूमि उत्तराखण्ड ते छोड़ी की ये परदेश ऐनी II
नई पीढी का बुये..बाप अपरी औलाद तेलेकी गढ़वाल नी जांदी ,
तबी ता आज य़ू दिन ग्याई ज्यादातरलूखों ते गढ़वाली नी आंदी II
...ध्यान से सुना और दीपू बात पर अमल कारा II

कबूतरी देवी जी को भी यंग उत्तराखण्ड अवार्ड २०११ समारोह मैं विसेस सम्मान.......

कबूतरी देवी जी को भी यंग उत्तराखण्ड अवार्ड २०११ समारोह मैं विसेस सम्मान.......
कबूतरी देवी जी की आवाज मैं आज भी वोही दम है जो बरसो पहले वो रेडिओ मैं गया करती थी......

सुर सम्राट नरेंदर सिंह नेगी को यंग उत्तराखण्ड अवार्ड 2011 समारोह मैं बेस्ट सिंगर(गाने) और बेस्ट म्यूजिक का अवार्ड.....

सुर सम्राट नरेंदर सिंह नेगी को यंग उत्तराखण्ड अवार्ड 2011 समारोह मैं बेस्ट सिंगर(गाने) और बेस्ट म्यूजिक का अवार्ड.....

जाग जाग जाग ज्वान वक्त सेण को नि छ ज्वानी को उमाल फिर दुबारा औण को नि छ

जाग जाग जाग ज्वान वक्त सेण को नि छ ज्वानी को उमाल फिर दुबारा औण को नि छ डांडी-कांठी उदंकार ह्वेगी नींद छोड़ दे आज ये समाज तै एक नयो मोड़ दे राग- द्वेष भेद भाव आज देश को मिटो एक बार गाँधी को स्वराज शंख फिर बजोऊ जात-पांत पंथ प्रान्त का सवाल सब हतोऊ नई पीढ़ी की नांग भूख कम से कम तू अब मिटो एक खून एक प्राण मनखी-मनखी सब समान एक सूर्य एक चन्द्र एक धरती आसमान एक नेक ह्वैक आज एक बात तू सुणो देश तेरु छ अगाडी जनु तू चांदी तनु बनौ.....

भोत कुछ ह्वैगी भुला कैन बोली कुछ नि ह्वै सभी देखण लग्यां पैली क्या थो, अब क्या ह्वै घी दूध न मुख लुकैली

भोत कुछ ह्वैगी भुला कैन बोली कुछ नि ह्वै
सभी देखण लग्यां पैली क्या थो, अब क्या ह्वै
घी दूध मुख लुकैली
सब डालडा खाना
पैली काखी नि जांदा था
अब भैर बी खाना
दयाधर्म कम और भ्रष्टाचार सीवे, कैन बोली कुछ नि ह्वै
पाणी सुखिगे पर
नल बिछांया
गिलास काखी नि रै
अब प्याला लांया
भीतर फुंड कुछ नि पर
भैर खूब सज्याँन
पैली गों मा कम था
अब ज्यादा रज्याँ
मम्मी डैडी लैगी बोलन, क्वी नि बोल्दु बई, कैन बोली कुछ नि ह्वै
पैली मनखी का खातिर
मनखी था मरणा
अब मनखी देखि
मनखी डरना
अस्पताल खुलीगे
धडाधड गोली खाना
क्वी बचण लग्याँ
क्वी मरी जाणा
कखी नि रै अब बैदु की दवई, कैन बोली कुछ नि ह्वै
गों वाला लाख्डा पाणिक रोणा
विकास का नौ पर उद्घाटन होणा
पर छोरा सरा-सर भैर भागणा
कखी सुखी धार मा बिजली कु उजालू जग्णु
पर निस बीटी माटु सफा बग्णु
डाला फंडा कटे दिनी
अब डाला लाणा
पैली कट दारों खाई
अब लगान वाला खाना
पर नयां डाला कखी नि दिखेना, कुजाणी क्या ह्वै, कैन बोली कुछ नि ह्वै .

क्या आपको पता है

क्या आपको पता है राजा घुरदेव दरबार के नाम से घुरदेवस्यूँ (घुडदौडस्यूँ) की पट्टी का नाम है क्योँ कि वे इस पट्टी के कबीलाई राजा थे । इससे पहले वे गुजरात के महसाणा के राजा थे लेकिन मुगलोँ के आक्रमण ने इन्हेँ उत्तराखँड की ओर खदेड दिया था इनकी पत्नी कैँत्यूरा वँश की राजकुमारी सुँदरा थी जिनके नाम से राजा घुरदेव दरबार ने घुडदौडस्यूँ मेँ सुँदरगढ बनवाया शँकराचार्य ने इनकी पूरी सेना के नाम के पीछे दरबार की जगह गुसाईँ की उपाधी देकर घुरदेव के गुसाँई राजपूतोँ का एक नया पन्ना इतिहास के सँग जोड दिया जो कि अभी केवल गढवाली जागरोँ तक ही सीमित है 52 गढोँ मेँ अभी तक सुँदर गढ का तो नाम तक अभी तक क्योँ नहीँ लिखा गया इसके ऊपर चर्चा होनी बहुत जरुरी है क्योँ की यह गढ सबसे बडी पट्टी घुडदौडस्यूँ का है । हर पट्टी की राजधानी गढ के नाम से पहचानी जाती थी ।
700 ईसवी मेँ राजा घुरदेव दरबार जब मुगलोँ के आक्सुँरमण से हारकर जब उत्दतराखँड के पहाडीयोँ मेँ शरण लेने आये तो चौँदकोट मेँ उन्रहेँ शरण मिली कैसे मिली । चौँदकोट के कबीलाइयोँ से शक का व्गयवहार प्ढरतीत होने से राजा घुरदेव दरबार ने वहाँ से प्रस्थान कर दिया और अपने लिये पहाड मेँ एक वीरान जगह मेँ शरण लेकर एक गढ का निर्माण कर दिया यह जगह कैँत्यूरोँ की सीमा के अँतर्गत की जगह थी अभी तक यह स्पष्ट नहीँ हैँ कि इस जगह को राजा घुरदेव ने कैँत्युरोँ को हराकर प्राप्त कीया । इतना जरुर है कि कैँत्यूरा नरेश ने घुरदेव की बहादुरी के ऊपर प्रभावित होकर अपनी बेटी सुँदरा के विवाह का प्रस्ताव रखा या दूसरी बात ये भी हो सकती है कि राजा घुरदेव दरबार सुँदरा की सुँदरता की चर्चाओँ से मुग्ध होकर कैँत्यूरोँ को परास्त कर सुँदरा को पाना चाहते थे लेकिन कैँत्यूरा नरेश घुरदेव दरबार के आक्रमण के दौरान ही सब कुछ गुप्तचरोँ की तरफ से जान गये आखिरकार अपने को हार से बचाने के लिये उन्हेँ राजाघुरदेव की शर्त के अनुसार ही चलना पडा वैसे भी कैँत्यूरा नरेश राजाघुरदेव के ऊपर बहुत प्रभावित थे । राजा घुरदेव ने अपने गढ का नाम सुँदरा के नाम से सुँदरगढ रख दिया सुँदरगढ एक घाटी मेँ दो नहरोँ के बीच मेँ टीलानुमा पहाडी के अँदर बनाया गया इसके अँदर जाने के लिये दो सुरँगेँ आगे की तरफ से और तीन सुरँगेँ पीछे की तरफ से बनाई गई थी रानी का राजमहल भी जागरोँ के अनुसार पहाडी के अँदर ही था जिसका रास्ता भी इन्हीँ सुरँगोँ से था । 700 ईसवी से 1300 ईसवी तक घुरदेव दरबार के बेटोँ, पोतोँ, परपोतोँ ने इस गढ पर राज किया 1300 ईसवी के करीबन ओम राणा के आक्रमण से घुरदेव के गुसाँइयोँ का राज गढ से समाप्त हो गया था लेकिन अपनी कूटनीती से गुसाँइयोँ ने गुफाओँ के अँदर बडे बडे पत्थरो को डाल कर पूरी राणा सेना का रास्ता बँद कर उन्हेँ अँदर ही मरने पर विवश कर दिया और ओम राणा को भी भागते हुए पकड कर मार डाला । जहाँ पर ऊँ राणा को मारा गया वह स्थान आज भी ओमराणा घाय यानी की उमराण घाट के नाम से प्रसिद्ध है ऊँ राणा की पत्नी स्वरुपा की भी राजमहल के अँदर दम घुपने के कारण मौत हो गयी रही होगी लेकिन जागरोँ मेँ उसकी राजमहल के अँदर जाकर आत्महत्या करने की बातैँ कही गई हैँ क्योँ कि अगर आप आज भी उन सुरँगोँ के अँदर जाने की कोशीश करोगे तो बहुत अँदर नहीँ जा पाऔगे क्योँ कि उन्हेँ राणाऔँ की सेना को खतम करने के लिये घुरदेव के गुसाईयोँ ने बडी बडी चट्टानोँ से सुरँगोँ को बँद कर दिया ताकि राणाओँ की सेना जिँदा राजमहल से बाहर न निकल सके ।........Hinawalikanthi......

हमारी शुरुवात चाहे लड़खड़ाई क्यों ना हो, होसले हमारे हमें मंजिल तक पहुचाएंगे. हम ही है वो जो अपने पहाड़ो से उत्तराखंड को चमकाएंगे.

हमारी शुरुवात चाहे लड़खड़ाई क्यों ना हो,
होसले हमारे हमें मंजिल तक पहुचाएंगे.
हम ही है वो जो अपने पहाड़ो से उत्तराखंड को चमकाएंगे...हिमांशु बिष्ट

पहाड़ का सब्बि आम अर खास लोखूं से एक आग्रह.....

पहाड़ का सब्बि आम अर खास लोखूं से एक आग्रह.....
२०११ कि जनगणना शुरू ह्वेगे। आप थैं जानकारी होली कि जनगणना का प्रपत्र मा एक कालम भाषा कू बि होन्दू। आमतौर पर जनगणना कर्ता ही हमारी भाषा हिन्दी अंकित कर देंदन्....जबकि हमारी मूल भाषा (दूदबोली) गढ़वाली या कुमाऊंनी च।
स्यू एक आग्रह यूं कि भाषा का ये कालम मा अपणी भाषा गढ़वाली या कुमाऊंनी अंकित करावा। ताकि हम देश मा भाषा का स्तर पर अपणी पहचान कायम कर सकां अर अपणी भाषा थैं संविधान कि आठवीं अनुसूची मा स्थान दिलै सकां।
किलै कि आज भी भाषायी आधार पर हमरि पछाण देश मा नगण्य च।
ये रैबार थैं अपणा इष्टमित्रूं, परिचितूं, प्रवासियों तक बि पौछैल्या यन्न बि आग्रह च।
ये भाषा आन्दोलन मा आपकी भागीदारी अपेक्षित च।
जय उत्तराखंड..जय भारत !!

उत्तराखंड के सभी लोगों से एक आग्रह.....
भारत में २०११ की जनगणना शुरू हो चुकी है l आपको जानकारी होगी कि जनगणना के फॉर्म में एक कॉलम भाषा का भी होता है l आमतौर पर जनगणना करने वाले ही हमारी भाषा हिंदी अंकित कर देते हैं....जबकि हमारी मूल भाषा(मातृ-भाषा) गढ़वाली / कुमाऊंनी है l
इसलिए एक आग्रह है कि भाषा के कॉलम में अपनी भाषा गढ़वाली या कुमाऊंनी ही लिखवायें, ताकि हम उत्तराखंडी / उत्तरांचली भाषा के स्तर पर अपनी पहचान बना सकें और अपनी भाषा को संविधान की आठवीं अनुसूची में स्थान दिला सकें l
क्योंकि आज भी भाषा के आधार पर हमारी पहचान भारत में न के बराबर ही है l
आप लोगों से इस सन्देश को अपने मित्रो, परिचितों और उत्तराखंडी भाई बहनों तक भी पहुँचाने का आग्रह भी करते हैं l
इस भाषा आन्दोलन में आपकी भागीदारी अपेक्षित है l
जय उत्तराखंड..जय भारत !!

बूब जै जवान नाती जे लूल बख्ता तेरी बले ल्ह्यून च्येलेक लैट, ब्वारी बुल्बुली बख्ता तेरी बले ल्ह्यून

बूब जै जवान नाती जे लूल
बख्ता तेरी बले ल्ह्यून
च्येलेक लैट, ब्वारी बुल्बुली
बख्ता तेरी बले ल्ह्यून

च्येल कूना मी बाब कै चूटूल
ब्वारी कूने मी सास को कूटूल
भाई कूनो मी भाई को लूटूल
और दुनि कुने रे मी ठूल रे ठूल
जदुक च्याल उदूके चूल
बख्ता तेरी बले ल्ह्यून
च्येलेक लैट, ब्वारी बुल्बुली
बख्ता तेरी बले ल्ह्यून

च्याल मारने बाब के लात
और सास जोड़ने ब्वारी हाथ
च्येल ब्वारी नक खिल्खिलात
बुड बुडियाक पड़ो टितात
बाव है गयी घर का ठूल
बख्ता तेरी बले ल्ह्यून
च्येलेक लैट, ब्वारी बुल्बुली
बख्ता तेरी बले ल्ह्यून

मुख मे मलाई भिदेर जहर
ओ इजा गोनु मिले पूज को सहर
टीक मे कपाई लाल पील
दिल मे देखो मुसाक बिल
चानी मे चनन और दिल मे दुल
बख्ता तेरी बले ल्ह्यून
च्येलेक लैट, ब्वारी बुल्बुली
बख्ता तेरी बले ल्ह्यून

मुस पेटन धान भूष
बिराव पेटन ज्युन मुस
मोटियेल पतव कै चूस
मेस खे बेर मेस खुश
कल्जुगा का भाग खुल
बख्ता तेरी बले ल्ह्यून
च्येलेक लैट, ब्वारी बुल्बुली
बख्ता तेरी बले ल्ह्यून

झूठ कै देखि साच डरनी
चोर देख माज्बर डरनी
उज्याव देख अन्यार डरनी
मुस देख बिराव डरनी
मुसक पौथ धरु है ठूल
बख्ता तेरी बले ल्ह्यून
च्येलेक लैट, ब्वारी बुल्बुली
बख्ता तेरी बले ल्ह्यून

तराजू भो टूकी मे ल्हें गो
भेसैक भो बोकी मे ल्हें गो
तौल कस्यार दाड़ मे ल्हें गे
ओ इजा घागेरी सुरयाव नाड़ी मे ल्हें गे
माट है गो सुनुको मोल
बख्ता तेरी बले ल्ह्यून
च्येलेक लैट, ब्वारी बुल्बुली
बख्ता तेरी बले ल्ह्

फैशन रंग मे सौ भर ल्हें गो
लुकुड़ आंग मे पौ भर रे गो
राड़ने ए गे गाव मे आन्गेडी
ओ बाज्यु आन्गेडी मेले भौजी नागेड़ी
आय कि देखो आय देखुल
बख्ता तेरी बले ल्ह्यून
च्येलेक लैट, ब्वारी बुल्बुली
बख्ता तेरी बले ल्ह्यून

पहाड़ आवा हमरि पर्यटन कि दुकानि खुलिगेन पहाड़ आवा


पहाड़ आवा हमरि पर्यटन कि दुकानि खुलिगेन पहाड़ आवा ............................. हमरि चा कि दुकान्यों मा ‘तू कप- टी’ बोली जावा पहाड़ आवा ................................ हमरा गुमान सिंग रौतेल्लौं डालर. ध्यल्ला, पैसा दे जावा पहाड़ आवा .............................. पहाड़ पर घास लौंदी मनख्यणि कु फ़ोटो खैंचि जावा पहाड़ आवा .............................. देव धामूं मा द्यब्ता हर्चिगेन पांच सितारा जिमी जावा पहाड़ आवा ................................. परर्कीति पर बगच्छट्ट ह्वेकि कचरा गंदगी फ़ोळी जावा पहाड़ आवा ................................. हम लमडि छां बौगि छां रौड़ि छां/ तुम कविलासुं मा घिस्सा- रैड़ि रंगमतु खेलि जावा पहाड़ आवा ............................

भालू लिखू या बुरु लिखू यान ना सोचा दागडियो की क्या चा लिखू


भालू लिखू या बुरु लिखू यान ना सोचा दागडियो की क्या चा लिखू
अँधेरा मा सोची कन और उजाला मा बेटी कन चा लिखू
मी तय अपनी कविता और अपना हुनर सब लोगो तय दिखाण चा
अपणु उत्तराखण्ड कु नाम हर जगह मा रोशन कन चा बस एक या ही तमना चा मेरी
जरा मेरु काम वे जा उत्तराखण्ड का कवियों का दगडी मा हिमांशु बिष्ट कु नाम भी जुड़ जा
.......

पूर्णागिरि में पूर्ण होती मनोकामना


देवभूमि उत्तराखण्ड में स्थित अनेकों देवस्थलों में दैवीय-शक्ति व आस्था के अद्भुत केन्द्र बने पूर्णागिरि धाम की विशेषता ही कुछ और है। जहां अपनी मनोकामना लेकर लाखों लोग बिना किसी नियोजित प्रचार व आमन्त्रण के उमड पडते हैं जिसकी उपमा किसी भी लघु कुंभ से दी जा सकती है। टनकपुर से टुण्यास तक का सम्पूर्ण क्षेत्र जयकारों व गगनभेदी नारों से गूंज उठता है। वैष्णो देवी की ही भान्ति पूर्णागिरि मन्दिर भी सभी को अपनी ओर आकर्षित किए रहता है। हिन्दू हो या मुस्लिमए सिख हो या ईसाई, सभी पूर्णागिरि की महिमा को मन से स्वीकार करते हैं। देश के चारों दिशाओं में स्थित कालिकागिरि, हेमलागिरि व मल्लिकागिरि में मां पूर्णागिरि का यह शक्तिपीठ सर्वोपरि महत्व रखता है। समुद्रतल से लगभग 3 हजार फीट ऊंची धारनुमा चट्टानी पहाड के पूर्वी छोर पर सिंहवासिनी माता पूर्णागिरि का मन्दिर है जिसकी प्रधान पीठों में गणना की जाती है। संगमरमरी पत्थरों से मण्डित मन्दिर हमेशा लाल वस्त्रोंए सुहाग.सामग्रीए चढावाए प्रसाद व धूप-बत्ती की गंध से भरा रहता है। माता का नाभिस्थल पत्थर से ढका है जिसका निचला छोर शारदा नदी तक गया है। देवी की मूर्ति के निकट स्थित इस स्थल पर ही भक्तगण प्रसाद चढाते व पूजा करते हैं। मन्दिर में प्रवेश करते ही कई मीटर दूर से पर्वत शिखर पर यात्रियों की सुरक्षा के लिए लगाई गई लोहे के लंबे पाइपों की रेलिंग पर रंग-बिरंगी पोलोथीन पन्नियों व लाल चीरों को बंधा देकर यात्रीगण विस्मित से रह जाते हैं। देवी व उनके भक्तों के बीच एक अलिखित अनुबंध की साक्षी ये रंग-बिरंगी लाल-पीली चीरें आस्था की महिमा का बखान करती हैं। मनोकामना पूरी होने पर फिर मन्दिर के दर्शन व आभार प्रकट करने और चीर की गांठ खोलने आने की मान्यता भी है। टनकपुर से टुण्यास व मन्दिर तक रास्ते भर सौर ऊर्जा से जगमगाती ट्यूबलाइटें, सजी-धजी दुकानें, स्टीरियो पर गूंजते भक्तिगीत, मार्ग में देवी-देवताओं की प्रतिमाएं, देवी के छन्द गाती गुजरती स्त्रियों के समूह सभी कुछ जंगल में मंगल सा अनोखा दृश्य उपस्थित करते हैं। रात हो या दिन चौबीस घंटे मन्दिर में लंबी कतारें लगी रहती हैं। मस्तक पर लाल चूनर बांध या कलाई में लपेटे भूख प्यास की चिन्ता किए बिना जोर.जोर से जयकारे लगाते लोगों की श्रद्धा व आध्यात्मिक अनुशासन की अद्भुत मिसाल यहां बस देखते ही बनती है। चारों ओर बिखरा प्राकृतिक सौन्दर्य ऊंची चोटी पर अनादि काल से स्थित माता पूर्णागिरि का मन्दिर व वहां के रमणीक दृश्य तो स्वर्ग की मधुर कल्पना को ही साकार कर देते हैं। नीले आकाश को छूती शिवालिक पर्वत मालाएं, धरती में धंसी गहरी घाटियां, शारदा घाटी में मां के चरणों का प्रक्षालन करती कल-कल निनाद करती पतित पावनी सरयूए मन्द गति से बहता समीरए धवल आसमानए वृक्षों की लंबी कतारेंए पक्षियों का कलरव, सभी कुछ अपनी ओर आकर्षित किए बिना नहीं रहते। चैत्र व शारदीय नवरात्र प्रारंभ होते ही लंबे.लंबे बांसों पर लगी लाल पताकाएं हाथों में लिए सजे धजे देवी के डोले व चिमटा, खडताल मजीरा, ढोलक बजाते लोगों की भीड से भरी मिनी रथ यात्राएं देखते ही बनती हैं। वैसे श्रद्धालुओं का तो वर्ष भर आवागमन लगा ही रहता है। यहां तक कि नए सालए नए संकल्पों का स्वागत करने भी युवाओं की भीड हजारों की संख्या में मन्दिर में पहुंच साल की आखिरी रात गा.बजा कर नए वर्ष में इष्ट मित्रों व परिजनों के सुखए स्वास्थ व सफलता की कामना करती हैं।