Friday, July 30, 2010

केदारघाटी के गांवों में अवति‍रत हुए पांडव देवता
-हिमांशु (Harish) बिष्ट

देवभूमि के रूप में विख्यात केदारघाटी के गावों में इन दिनों पांडव देवताओं को आमंत्रि‍त करने के लिए बड़ी संख्या में स्थानीय लोग इकठ्ठा हो रहे हैं। केदारघाटी के परकण्डी,
डमार,जगोठ, भौंसाल, जलई, बाड़ब, अखोड़ी, पुनाड़, रदमोला, सन्, तैला, धरकोट, सिलगढ सहित चार दर्जन से अधि‍क गांवों में pandaw 2(2)अपने इन महान लोक देवताओं को जिमाने के लिए ‘पण्डवाणी मण्डाण` का आयोजन रचम सीमा पर है।
केदारघाटी में पांडवाणी गीतों के जानकारों और ढोलसारग के मर्मज्ञ लोकलावंतों की जुगलबंदी गढवाली संस्कृति को जानने वाले के लिए एक बेरहत निमंत्राण की प्रतीक बनती जा रही है। कई विदेशी मेहमान और शोधार्थियों को पांडव चौकों में देर रात तक आसानी से बैठा देखा जा रहा है।
केदारघाटी के अनेक गांवों में पांडव नृत्य के कलात्मक पक्ष को संजीवता और धार्मिक भावना के साथ जीवंत होता देखने का आकर्षण शब्दों में बयां किया जाना कठिन है। वर्षों पुरानी इस सांस्कृतिक थाती को उकेर देने के लिए जहां बुजुर्ग अनुभव दे रहे हैं वहीं नई पीढी भी उत्साहित होकर अपनी लोक वि‍रासत को जीवंत करने में सहयोग देती नजर आ रही है। परम्पराओं को जीवित रखने लिए पुरानी और नई पीढी को यह अद्भुत समन्वय कला, संस्कृति के इस नवोदित राज्य को नई पहचान देने का सफल प्रयास साबित हो रहा है। पौराणिक मान्यता के अनुसार स्वर्गारोहण यात्रा पर जाते समय पांडव इस घाटी की सुंदरता पर मोहित हो गए थे। तब पांडवों द्वारा अपने बाण अर्थात शस्त्रों को केदारघाटी में फेंक दिया गया था और घोषणा की थी कि मोक्षप्राप्ति के बाद भी हम सूक्ष्म रूप में प्रतिवर्ष यहां आकर पअने भक्तों की कुशलक्षेम पूछेंगे।
padva3इसी मान्यता के चलते साल दर साल केदारघाटी के गांवों में पाण्डव रअवतति होते हैं। उनके उन सूक्ष्म अवतारों के वाहक व्यक्ति नौर या पश्वा कहलाते हैं। मान्यता है कि ये कहीं भी रहें, पांडव अपनी पूजा के अवसर पर इन्हें अपने गांवों में खींच लाते हैं। गढवाल में दीपावली के ग्यारह दिन बाद मनाई जाने वाली एगास बग्वाल के दिन से पाण्डवों का दीया लगना शुरू हो जाता है और उन्हें बुलाने की स्थानीय रस्में प्रारंभ हो जाती हैं। इन देवताओं की गाथाएं ढोल-दमौ के साथ गाई जाती हैं। इसमें पांचों पांडवों का जन्म, दुर्योध्न द्वारा निकाला जाना, पांचाल देश पहुंचकर द्रोपदी स्वयंवर, नागकन्या से विवाह, महाभारत युद्ध बावन व्यूह की रचना राज्याभिषेक, स्वर्गारोहण आदि सभी लोक कथाओं के अनुसार सुनाई जाती है। यहां प्रत्येक पांडव या पात्र को अवतरि‍त करने की अलग-अलग थाप अथवा ताल होती है। वास्तव में ढोली इसमें सबसे अहम भूमिका निभाता है। इसकी थापों पर ही मानवों पर पांडव देवताओं का अवतरण होता है।
पांडव प्रकट होकर मानव के सम्मुख कुछ विस्मय करने वाले शक्ति प्रदर्शन करते हैं। इनमें जलते अंगारों पर नृत्य, लोहे की सब्बलों को मोड़ना, पानी से भरी गारगों को पीना और ढेर के ढेर मिट्टी को निगलना जैसे कार्य होते हैं। इन्हें देखकर रअचज होता है। महीने भर तक गांवों में बारी-बारी से बावन व्यूहों की रचना भी की जाती है।
केदारघाटी का चक्रव्यूह, कमल व्यूह और बिन्दू व्यूह अपने में बेहद अहम माने जाते हैं। इस समय मोरूदार और गैडा कौथीग के साथ पाण्डव देवताओं को विदाई दी जाती है। रूमसी गांव में आयोजित पाण्डव नृत्य में ढोल संवाद कर रहे ७५ वर्षीय सज्जन दास का कहना है कि इस सम्पूर्ण नृत्य को ३६४ तालों से पूर्ण किया जाता है। इसका ज्ञान उनके पूर्वजों ने उन्हें दिया है जो पीढी दर पीढी आगे हस्तगत होता रहेगा।
.......हिमांशु बिष्ट

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Bisht G
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