Tuesday, March 1, 2011
संघर्ष स्वभाव है पर्वतीय नारी का
देश-दुनिया के लिए आठ मार्च का दिन महिलाओं के संघर्ष को याद करने का दिन है, लेकिन देवभूमि का तो अस्तित्व ही महिलाओं पर टिका है। सामाजिक सरोकारों से जुड़ा शायद ही कोई क्षेत्र होगा, जहां उत्तराखंडी महिलाओं ने प्रतिमान न स्थापित किए हों। पर्वतीय नारी के लिए संघर्ष कोई तमगे हासिल करने का जरिया नहीं है। संघर्ष तो उसके स्वभाव में है और इसी जुझारू प्रवृत्ति ने उसे दुनियाभर में अलग पहचान दी है। पहाड़ का भूगोल जितना जटिल है, अन्य परिस्थितियां भी उसी के अनुरूप जटिल रही हैं। यही वजह है कि यहां ऐतिहासिक घटनाओं की जानकारी लोकगीतों व पंवाड़ों में ही ज्यादा मिलती है। इतिहास में पहले-पहल जिस वीर नारी का उल्लेख मिलता है, वह है रानी कर्णावती, जिसने मुगल बादशाह औरंगजेब की सेना से लोहा लिया। वीरबाला तीलू रौतेली, मालू रौतेली आदि वीरांगनाओं का इतिहास को भी कालांतर में प्रचलित लोक गाथाओं से ही लिपिबद्ध किया गया। वर्ष 1805 से लेकर 1815 तक उत्तराखंड के अधिकांश हिस्से में गोरख्याणी का राज रहा और इसकी सर्वाधिक त्रासदी यहां महिलाओं ने ही झेली। गोरखा आक्रमण में अपनी जान देकर लोगों की जान बचाने वाली कोलिण जगदेई तो आज लोकदेवी के रूप में पूजी जाती हैं। आजादी के आंदोलन में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेने वाली बिशनी देवी शाह को कौन भुला सकता है। यह वह महिला हैं जिन्होंने आजादी के लिए जेल जाने वाली उत्तराखंड की प्रथम महिला बनने का गौरव हासिल किया। चिपको आंदोलन की सूत्रधार रैणी गांव की गौरा देवी का नाम तो पूरी दुनिया में आदर के साथ लिया जाता है। उन्होंने स्वयं स्कूल का मुंह नहीं देखा, लेकिन दुनिया के लिए उनका पूरा जीवन ही एक किताब बन गया।साठ के दशक में गढ़वाल के शराब विरोधी आंदोलन को स्वर देने वाली टिंचरी माई स्वयं में संघर्ष की अनूठी मिसाल हैं। 19 साल की उम्र में विधवा होने पर भी वह टूटी नहीं। टिंचरी माई ने शराब की दुकानें जलाकर इसके खिलाफ संघर्ष का बिगुल फूंका। जेल होने पर भी उन्होंने ऐलान किया मैं यहीं रुकने वाली नहीं हूं। पहाड़ी महिला जानती है कि जल, जंगल, जमीन के बिना मनुष्य का कोई अस्तित्व नहीं है। इसीलिए वह पहाड़ी समाज के घर यानि जल, जंगल और जमीन की लड़ाई में पहली पांत में रही है। नशा नहीं रोजगार दो, टिहरी के विस्थापितों के पुनर्वास का आंदोलन बगैर महिलाओं की भूमिका के शायद ही मुकाम हासिल कर पाते। उत्तराखंड आंदोलन में तमाम घरेलू कार्यो के बावजूद महिलाओं की भागीदारी अविश्र्वसनीय है। सबसे पहले शहीद होने वालों में बेलमती चौहान, हंसा धनाई की बहादुरी भला भुलाई जा सकती है। यह तो सिर्फ बानगी है। पहाड़ी महिला का संघर्ष तो कभी न खत्म होने वाली गाथा है। वह सिर्फ घर-परिवार में ही नहीं जूझती, खेतों में हल भी चलाती है। जंगलों में गुलदार, बाघ, भालू, सूअर जैसे हिंसक जीवों से संघर्ष तो मानो उसकी जीवनचर्या का हिस्सा बन गया है। फिर भी लगता है कि पर्वतीय नारी आज भी वहीं खड़ी है, जहां वह दशकों पहले थी। लड़ के लेंगे, भिड़ के लेंगे, छीन के लेंगे उत्तराखंड का नारा बुलंद करने वाली पहाड़ी महिला का असमानता मुक्त बेहतर समाज का सपना अभी भी दूर है।
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2 comments:
Bahut sunder Himanshu Bhai, bilkul thik aur hakikat byaan kiya hai aapne, bahut bahut shukriya........
Bahut aham jankariyan aapne di hain. Iske liye aap sadhuwad ke patra hain...
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