Tuesday, March 1, 2011
उत्तराखंडी सिनेमा को नहीं मिल पाई रफ्तार
राज कपूर, राजेश खन्ना, अमिताभ बच्चन, शाहरूख खान, मधुबाला तथा काजोल आदि कई हिंदी फिल्म कलाकारों के नाम हमारी जुंबा पर हर समय आते रहते हैं, लेकिन जब बात क्षेत्रीय सिनेमा की होती है तो नामों को गिनना तो दूर याद आना भी मुश्किल हो जाता है, लेकिन इसे किसी त्रासदी से कम नहीं माना जा सकता कि उ8ाराखंड मेंं क्षेत्रीय फिल्मों (गढ़वाली-कुमाऊंनी) के निर्माण एवं इससे जुड़े कलाकारों के लिए सरकार की ओर से कोई सहायता नहीं दी जा रही है।एक तरफ देश में प्रतिवर्ष ढाई सौ से तीन सौ फिल्मों का निर्माण करोड़ की लागत से हो रहा है। वहीं उ8ाराखंड सिनेमा अपनी रजत जयंती मनाने के बाद भी अभी तक र3तार नहीं पकड़ पाया है। अपने २५ सालों के सफर में कुछ गिनी-चुनी फिल्में हैं जो लोगों के दिलोंं पर अपनी छाप छोड़ पाई हैं। गढ़वाली-कुमाऊंनी सिनेमा के २५ सालों के इतिहास पर नजर दौड़ाएं तो सारी कहानी अपने आप ही सब कुछ बंया कर देती है। ४ मई, १९८३ को पराशर गौड़ ने गढ़वाली फिल्म जग्वाल से क्षेत्रीय सिनेमा को पहचान दिलाने का जो काम शुरू किया था, लेकिन इस दिशा में कोई उत्साह जनक परिणाम नहीं आ पाए। 1या कहते है क्षेत्रीय सिनेमा से जुड़े लोगतेरी सौ, हत्यां, गढ़वाली शोले का निर्माण करने वाले स्वपन फिल्म बैनर से जुडे मदन डुकलान ने बताया कि प्रदेश सरकार से कई बार क्षेत्रीय सिनेमा के बारे में अवगत कराया गया, लेकिन सरकार की ओर से कोई पहल नहंी की जा रही है। श्री डुकलान कहतेे हैं कि यदि सरकार प्रयास करती है तो क्षेत्रीय सिनेमा के माध्यम से जहां प्रतिभाओं को मंच मिलेगा वहीं कई लोगों को रोजगार भी प्राप्त होगा। राष्ट्रीय एवं क्षेत्रीय फिल्मोंंं एवं धारावाहिकों में अपने अभिनय का लोहा मनवा चुके रामेंद्र कोटनाला के अनुसार क्षेत्रीय सिनेमा में धन की कमी, संस्कृति संवद्र्धन की स्पष्ट नीति का न होना तथा सिनेमा हालों की कमी (दूरस्थ क्षेत्रोंं में ) सरकार की ओर से कोई सहायता का न मिलना ही प्रमुख कारण है।
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