किन्तु मै तो मेमना ही साबित हुआ.
लोकगीतों के पंखों पर बिठा दिया
तुम्हे जनपद के लोगों ने,
तुम्हे जनपद के लोगों ने,
इतिहास में अंकित हो गयी तुम्हारी शौर्यगाथा.
और मै मात्र- एक निरीह पशु सा,
एक आज्ञाकारी पुत्र मात्र- त्रेता के राम सा.
छोड़ा जिसने राजसी ठाठबाट,
समस्त वैभव और सभी सुख.
समस्त वैभव और सभी सुख.
और मैंने,
आहुति दे डाली जीवन की तुम्हारी इच्छा पर.
आहुति दे डाली जीवन की तुम्हारी इच्छा पर.
मलेथा में माधो सिंह भंडारी स्मारक छाया: साभार गूगल |
मेरा भी समग्र मूल्यांकन हो पायेगा?
ऐसी भी क्या विवशता थी पिता,
ऐसी भी क्या शीघ्रता थी
ऐसी भी क्या शीघ्रता थी
मै राणीहाट से लौटा भी नहीं था कि
तुमने कर दिया मेरे जीवन का निर्णय.
सोचा नहीं तुमने कैसे सह पायेगी
यह मर्मान्तक पीड़ा, यह दुःख
यह मर्मान्तक पीड़ा, यह दुःख
मेरी जननी, सद्ध्य ब्याहता पत्नी
और दुलारी बहना.
और दुलारी बहना.
क्या कांपी नहीं होगी तुम्हारी रूह,
काँपे नहीं तुम्हारे हाथ
काँपे नहीं तुम्हारे हाथ
मेरी गरदन पर धारदार हथियार से वार करते हुए,
ओ पिता,
मै तो एक आज्ञाकारी पुत्र का धर्म निभा रहा था
मै तो एक आज्ञाकारी पुत्र का धर्म निभा रहा था
किन्तु तुम, क्या वास्तव में मलेथा का विकास चाहते थे
या तुम्हे चाह थी मात्र जनपद के नायक बनने की ?और यदि यह सच है तो पिता मै भी शाप देता हूँ कि
जिस भूमि के लिए मुझे मिटा दिया गया- उस भूमि पर
अन्न खूब उगे, फसलें लहलहाए किन्तु रसहीन, स्वाद हीन !
और पिता तुम, तुम्हारी शौर्यगाथाओं के साथ-
पुत्रहन्ता का यह कलंक तुम्हारे सिर, तुम्हारी छवि धूमिल करे !
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