Tuesday, December 28, 2010


""नारी की व्यथा "
जीवन के अतीत में झांकने बैठी मै
पायी वहां दर्दनाक यादें और रह गयी स्तब्ध मै
समूचा अतीत था घोर निराशा और अवसाद में लींन
कुछ भी न था वहां खुशनुमा बन गई जिंदगी उत्साह हीन
बदरंग हो चुके थे सपने जीवन पथ था शब्दहीन
बच्चे भर रहे थे नए रंग, भबिष्य ने बुने सपने
यादें कर दी धूमिल सजा दिए रंग जीवन में अपने
मै आज तक ढो रहीं थी उन लाशो का गट्ठर
तिल तिल कर जी रही प्रतिदिन मर मरकर
शर्म और हया का उतार फेंका झीना आवरण
बच्चो ने था ठहराया सही यही मेरी तपस्या का है फल
किसी बक्त भी अगर गिर जाती थी मै नजरो में संतान की
जी न पाती उन लाशों के भी कई गुना बोझ से
आज सर उठा कर जीती हूँ पाती हूँ उस दर्द से मुक्ति
नारीं जीवन की यही त्रासदी, फिर भी है वो दुर्गा शक्ति
पहले कुचली गई अपनों से, फिर सहा संतापं
यहाँ दबकर जमाना भी देता है कभी कभी घातक सा ताप
बरसो से यही है नारी की पीड़ा, भोगा इसको कभी सीता ने
सीता ने दी अग्नि परीक्षा, और अंतिम बेला पाया ढेर तिरस्कार
चली आ रही है यही परीक्षा, तिरस्कार और संताप
पाई न इससे कभी मुक्ति नारी हो तुम कैसी शक्ति
पूजी जाती अम्बा, दुर्गा और कहलाती पूर्ण शक्ति
कयूं नहीं मिलता नारी को सम्मान कियूं होता हर पथ पर तिरस्कार ?????????? रोशी

Sunday, December 5, 2010

उत्तराचल के चार विरासत या धरोहर के प्रतीक हैं:-राज्यपुष्प ब्रह्म कमल;


उत्तराचल के चार विरासत या धरोहर के प्रतीक हैं:-राज्यपुष्प ब्रह्म कमल;
ब्रह्म कमल यहाँ का राज्य पुष्प है। वेदों में भी इसका उल्लेखमिलता है। यह कश्मीर, मध्य नेपाल, उतराखंड में फूलों कीघाटी, केदारनाथ, शिवलिंग, बेस, पिंडापी, ग्लेशियर, आदि में३६०० मीटर की ऊँचाई पर पाया जाता है। पौधों की ऊँचाई७०-८० से.मी. होती है। जुलाई से सितम्बर के मध्य यह जहाँखिलता है वहीं का वातावरण सुगंध से भर जाता है। पुष्प केचारों ओर कुछ पारदर्शी ब्लैडर के समान पत्तियों की रचनाहोती है जिसको स्पर्श कर लेने मात्र से उसकी सुगंध कई घंटोंतक अनुभव की जा सकती है। इसकी जडों में औषधीय गुणहोते है। यह दुर्लभ प्रजाति का विशेष पुष्प है। इतिहास एवंधार्मिक ग्रंथों में इस पुष्प का कई स्थलों पर उल्लेख मिलता है

Friday, November 12, 2010


:) आज उत्तराखंड का शिक्षित युवा वर्ग रोजगार का आभाव म अपनी जन्मभूमि सी
पलायन करणा कें मजबूर छ ,करण केवल एक रोजगार का साधनों की कमी | मैं कखी
पढ़ी थोऊ की पिछला 10 वर्षु मा पहाड़ सी 12 लाख सी भी ज्यादा लोग पलायन
करी ग्येन | निरंतर पलायन सी विकास पर असर पड़ण लग्य्नु छ अगर हम केवल
सांसद तथा विधायक निधि पर विशेषण करू त ये वजह सी पर्वतीय क्षेत्र थैं
लगभग १६ करोड़ रूपए सालाना नुकसान होनु चा । ई औसत सी प्रदेश की 4 हजार
करोड़ की मानक विकास योजना कि बात करी जाए त पर्वतीय क्षेत्र थैं साल भर
माँ 30 करोड़ रूपयों की हानि होणि चा । निरंतर पलायन सी असर जनसँख्या पर
भी पड़ी और हमारा राज्य मा जह्संख्या का हिसाब सी आठ विधान सभा की सीट कम
ह्वै ग्येन | लगभग 40 करोड़ रूपये की वार्षिक विधायक निधि जू की यौं आठ
विधानसभा सीटो थीं मिलदी वै सी हम सबी वंचित ह्वै गयौं | पहाड़ सी पलायन
कु असर पर्वतीय क्षेत्रो थैं मिलण वाळी योजनाओ पर भी पड़लू | हालाकि
मैदानी क्षेत्रो मा कुछ बड़ा उधमियो न अपना प्लांट स्थापित जरुर करी छन
परन्तु तब भी पहाड़ का युवाओ थैं रोजगार का अवसर अभी भी गिन्या -चुन्या छन
| जरुरत च एक मजबूत निति बनौन की जैसी उत्तराखंड का मूल निवासियों कें वखि
रोजगार मिलो और पहाड़ का लोग पलायन का वास्ता मजबूर न हो सक्या......

Saturday, July 31, 2010


उत्तराखंड में एक ऐसा भी गाँव है जहा नही होते है पंचायत चुनाव

हिमाच्छादित गगनचुम्बी पर्वत श्रृंखलाओं से बीच चीन की सीमा से सटा भारत का एक गांव माणा आज भी अपनी पारंपरिक ओर प्राकृतिक विरासत को संजोए हुए है। समूचे देश में भले ही छोटे-छोटे चुनाव में प्रत्याशियों के बीच कांटे की टक्कर होती हो मगर यहां आज तक ग्राम पंचायत के लिए वोट नहीं डाले गए। सुनने में जरूर अटपटा लगता है कि विगत 100 साल से यहां ग्राम के मुखिया निर्विरोध चुनते आ रहे हैं।


चीन की सीमा से कुछ मील की दूरी पर बसा माणा देश का आखिरी गांव है।
हिन्दू आस्था के केन्द्र बदरीनाथ धाम से मात्र तीन किमी पैदल चलने के बाद पड़ने वाले इस गांव में नैसर्गिक सुन्दरता का अकूत खजाना है। माणा में ख्ेाती भी होती है और मंदिरों में पूजा भी। यहां का जीवन सोंधी खुशबू को समेटे है। नई बात यह है कि भोटया जनजाति के लगभग 300 परिवारों वाले इस गांव में प्रधान का चुनाव वोट डालकर नहीं होता। वर्ष 1962 के चीन युद्ध के बाद माणा को 1988 में नोटिफाईड एरिया बदरीनाथ से सम्बद्ध किया गया था। 1989 में पंचायत का दर्जा मिलने के बाद से आज तक यहां के निवासी अपने प्रधान का चयन आपसी सहमति से करते आ रहे हैं। यहां पहले प्रधान राम सिंह कंडारी से लेकर निवर्तमान ग्राम प्रधान पीताम्बर सिंह मोल्फा निर्विरोध चुने गए। यहां की आजीविका आलू की खेती,भेड़, बकरी पालन है। 1785 की जनसंख्या वाले छोटे से गांव में चंडिका देवी, काला सुन्दरी, राज-राजेश्वरी,भुवनेश्वरी देवी,नन्दा देवी,भवानी भगवती व पंचनाग देवता आदि के मन्दिरों में भोटया जनजाति की उपजातियों के लोगों का अधिकांश समय अपनी-अपनी परम्परा निभाने व धार्मिक अनुष्ठान में बीतता है। माणा में वन पंचायत भी गठित है जिसका विशाल क्षेत्रफल लगभग 90 हजार हेक्टेअर तक फैला है। यहां मौजूद भगवान बद्रीनाथ के क्षेत्रपाल घण्टाकर्ण देवता का मन्दिर अपनी अलग पहचान रखता है। कई खूबियों के बावजूद यहां भी कुछ कष्ट हैं। बद्रीनाथ के कपाट बन्द होने से कपाट खुलने तक पर यह पूरा क्षेत्र सेना के सुपुर्द रहता है। इस कारण ग्रामीणों को शीतकाल के 6 माह अपना जीवन सिंह धार, सैन्टुणा, नैग्वाड़, घिंघराण,नरौं, सिरोखुमा आदि स्थानों पर बिताना पड़ता है। दूसरी विडंबना यह है इन्टर तक के विद्यार्थी छह माह की शिक्षा माणा में लेते हैं और छह माह 100 किमी दूर गोपेश्वर के विद्यालयों में। यहां टेलिफोन, बिजली और पानी जैसी सुविधा तो हैं उपचार कराने को अस्पताल नहीं। ग्राम प्रधान पीताम्बर सिंह मोल्फा ने बताया कि देश-विदेश से बदरीनाथ पहुंचने वाले कई अति विशिष्ट व्यक्ति और मंत्रीगण माणा को देखने तो आते हैं लेकिन गांव के विकास को वादों के अलावा कुछ नहीं देते। देश विशेष पहचान रखने वाले इस गांव को अभी भी विकास का इंतजार है।........ जय पहाड़ तू महान
हिमांशु बिष्ट :- ९९९९ ४५१ २५०

Friday, July 30, 2010

केदारघाटी के गांवों में अवति‍रत हुए पांडव देवता
-हिमांशु (Harish) बिष्ट

देवभूमि के रूप में विख्यात केदारघाटी के गावों में इन दिनों पांडव देवताओं को आमंत्रि‍त करने के लिए बड़ी संख्या में स्थानीय लोग इकठ्ठा हो रहे हैं। केदारघाटी के परकण्डी,
डमार,जगोठ, भौंसाल, जलई, बाड़ब, अखोड़ी, पुनाड़, रदमोला, सन्, तैला, धरकोट, सिलगढ सहित चार दर्जन से अधि‍क गांवों में pandaw 2(2)अपने इन महान लोक देवताओं को जिमाने के लिए ‘पण्डवाणी मण्डाण` का आयोजन रचम सीमा पर है।
केदारघाटी में पांडवाणी गीतों के जानकारों और ढोलसारग के मर्मज्ञ लोकलावंतों की जुगलबंदी गढवाली संस्कृति को जानने वाले के लिए एक बेरहत निमंत्राण की प्रतीक बनती जा रही है। कई विदेशी मेहमान और शोधार्थियों को पांडव चौकों में देर रात तक आसानी से बैठा देखा जा रहा है।
केदारघाटी के अनेक गांवों में पांडव नृत्य के कलात्मक पक्ष को संजीवता और धार्मिक भावना के साथ जीवंत होता देखने का आकर्षण शब्दों में बयां किया जाना कठिन है। वर्षों पुरानी इस सांस्कृतिक थाती को उकेर देने के लिए जहां बुजुर्ग अनुभव दे रहे हैं वहीं नई पीढी भी उत्साहित होकर अपनी लोक वि‍रासत को जीवंत करने में सहयोग देती नजर आ रही है। परम्पराओं को जीवित रखने लिए पुरानी और नई पीढी को यह अद्भुत समन्वय कला, संस्कृति के इस नवोदित राज्य को नई पहचान देने का सफल प्रयास साबित हो रहा है। पौराणिक मान्यता के अनुसार स्वर्गारोहण यात्रा पर जाते समय पांडव इस घाटी की सुंदरता पर मोहित हो गए थे। तब पांडवों द्वारा अपने बाण अर्थात शस्त्रों को केदारघाटी में फेंक दिया गया था और घोषणा की थी कि मोक्षप्राप्ति के बाद भी हम सूक्ष्म रूप में प्रतिवर्ष यहां आकर पअने भक्तों की कुशलक्षेम पूछेंगे।
padva3इसी मान्यता के चलते साल दर साल केदारघाटी के गांवों में पाण्डव रअवतति होते हैं। उनके उन सूक्ष्म अवतारों के वाहक व्यक्ति नौर या पश्वा कहलाते हैं। मान्यता है कि ये कहीं भी रहें, पांडव अपनी पूजा के अवसर पर इन्हें अपने गांवों में खींच लाते हैं। गढवाल में दीपावली के ग्यारह दिन बाद मनाई जाने वाली एगास बग्वाल के दिन से पाण्डवों का दीया लगना शुरू हो जाता है और उन्हें बुलाने की स्थानीय रस्में प्रारंभ हो जाती हैं। इन देवताओं की गाथाएं ढोल-दमौ के साथ गाई जाती हैं। इसमें पांचों पांडवों का जन्म, दुर्योध्न द्वारा निकाला जाना, पांचाल देश पहुंचकर द्रोपदी स्वयंवर, नागकन्या से विवाह, महाभारत युद्ध बावन व्यूह की रचना राज्याभिषेक, स्वर्गारोहण आदि सभी लोक कथाओं के अनुसार सुनाई जाती है। यहां प्रत्येक पांडव या पात्र को अवतरि‍त करने की अलग-अलग थाप अथवा ताल होती है। वास्तव में ढोली इसमें सबसे अहम भूमिका निभाता है। इसकी थापों पर ही मानवों पर पांडव देवताओं का अवतरण होता है।
पांडव प्रकट होकर मानव के सम्मुख कुछ विस्मय करने वाले शक्ति प्रदर्शन करते हैं। इनमें जलते अंगारों पर नृत्य, लोहे की सब्बलों को मोड़ना, पानी से भरी गारगों को पीना और ढेर के ढेर मिट्टी को निगलना जैसे कार्य होते हैं। इन्हें देखकर रअचज होता है। महीने भर तक गांवों में बारी-बारी से बावन व्यूहों की रचना भी की जाती है।
केदारघाटी का चक्रव्यूह, कमल व्यूह और बिन्दू व्यूह अपने में बेहद अहम माने जाते हैं। इस समय मोरूदार और गैडा कौथीग के साथ पाण्डव देवताओं को विदाई दी जाती है। रूमसी गांव में आयोजित पाण्डव नृत्य में ढोल संवाद कर रहे ७५ वर्षीय सज्जन दास का कहना है कि इस सम्पूर्ण नृत्य को ३६४ तालों से पूर्ण किया जाता है। इसका ज्ञान उनके पूर्वजों ने उन्हें दिया है जो पीढी दर पीढी आगे हस्तगत होता रहेगा।
.......हिमांशु बिष्ट

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जय हो नंदा देवी सबका कयाल रखना नंदा देवी
दो साल बाद सन 2012 में होने वाले उत्तराखंड के प्रसिद्ध लोक महोत्सव नंदा देवी राजजात की तैयारिया

ं अभी से शुरू हो गई हैं।
यह लोक महोत्सव हर बारह साल बाद होता है। इसमें देश-विदेश से भी हजारों श्रद्धालु पहुंचते हैं। नंदा देवी राजजात समिति ने मुख्यमंत्री को इस आयोजन के लिए अलग से राजजात प्राधिकरण गठित करने का प्रस्ताव भेजा है, ताकि राजजात में शामिल होने वाले हजारों लोगों को राजजात के कठिन रास्तों में बेहतर सुविधाएं मिलें और राज्य के इस प्रमुख धार्मिक व सांस्कृतिक आयोजन की पहचान पूरी दुनिया में बने। गौरतलब है कि नंदा देवी राजजात में हर 12 साल बाद हजारों की तादाद में लोग हिमालय के बुग्यालों और हिम शिखरों की यात्रा करते हैं।


इसमें दुनिया की रहस्यमयी झीलों में से एक रूपकुंड समेत 18 हजार फुट की ऊंचाई पर स्थित ज्यूरांगली दर्रा भी शामिल है। इस दर्रे को पार करने के लिए हिमालय के त्रिशूल पर्वत के पास से होकर गुजरना पड़ता है। अधिकतर आम और पर्वतारोहण से अनजान लोग यह यात्रा करते हैं, ऐसे में दुर्घटना की आशंका बनी रहती है। पूर्व राजजात समिति के सचिव रहे भुवन नौटियाल कहते हैं कि इस बार यात्रियों की संख्या बढे़गी। इस वजह से अभी से ही इन स्थानों में आवाजाही और अन्य सुविधाओं के विस्तार के लिए प्रयास करने होंगे।

इस यात्रा में लोग नौटी से चार सींग वाले मेढ़े के लेकर नंदीकुंड तक जाते हैं। कई दिनों तक चलने वाले इस आयोजन में चार सींग वाले मेढ़े की अगुवाई में देव यात्राएं निकाली जाती हैं। इस दौरान तकरीबन 21 जगह पड़ाव डालने के बाद यह यात्रा हिमालय के हिमाच्छादित पर्वत की जड़ पर स्थित नंदीकुंड मंेे संपन्न होती है। नंदा देवी को पार्वती का रूप माना जाता है। उन्हें शिव के पास कैलाश पर्वत तक विदा करने के लिए यह यात्रा उत्सव के रूप में मनाई जाती है। इसमें कई गांव से देव डोलियां निकलती हैं। इन्हें जात कहा जाता है। ये छोटी-बड़ी देव डोलियां नौटी से निकलने वाली चार सींग वाले मेढ़े के साथ मिलते हुए हिमालय पहुंचती हैं।

यह आयोजन गढ़वाल के राज परिवारो की ओर से शुरू किया गया था।अब उनके वंशज गढ़वाल के राजाओं के चांदपुर गढ़ी महल के पासकांसूवा गांव में रहते हैं।
यात्रा
इसी गांव के पास नौटी मे नंदा के मंदिरसे शुरू होती है
नंदा
राजजात के आयोजन में प्रमु भुमिका निभानेवाले भुवन नौटियाल ने बताया कि राजजात के आयोजन के लिए पहलेमांडवी मनौती मेले का आयोजन 23-24 मार्च को उपरायीं देवी केमंदिर में होगा। यह मेला मांडवी मनौती के बाद इस ाल दिसंबर मेंहोगा।
उसी
दिन नंदा देवी राजजात 2012 का कार्यक्रम भी तय की जाएगी ....

हिमांशु बिष्ट


नंदा देवी पर्वत भारत की दूसरी एवं विश्व की २३वीं सर्वोच्च चोटी है।[७] इससे ऊंची व देश में सर्वोच्च चोटी कंचनजंघा है। नंदा देवी शिखर हिमालय पर्वत शृंखला में भारत के उत्तरांचल राज्य में पूर्व में गौरीगंगा तथा पश्चिम में ऋषिगंगा घाटियों के बीच स्थित है। इसकी ऊंचाई ७८१६ मीटर (२५,६४३ फीट) है। इस चोटी को उत्तरांचल राज्य में मुख्य देवी के रूप में पूजा जाता है।[८] इन्हें नंदा देवी कहते हैं।[९] नंदादेवी मैसिफ के दो छोर हैं। इनमें दूसरा छोर नंदादेवी ईस्ट कहलाता है।[७] इन दोनों के मध्य दो किलोमीटर लम्बा रिज क्षेत्र है। इस शिखर पर प्रथम विजय अभियान में १९३६ में नोयल ऑडेल तथा बिल तिलमेन को सफलता मिली थी। पर्वतारोही के अनुसार नंदादेवी शिखर के आसपास का क्षेत्र अत्यंत सुंदर है। यह शिखर २१००० फुट से ऊंची कई चोटियों के मध्य स्थित है। यह पूरा क्षेत्र नन्दा देवी राष्ट्रीय उद्यान घोषित किया जा चुका है। इस नेशनल पार्क को १९८८ में यूनेस्को द्वारा प्राकृतिक महत्व की विश्व धरोहर का सम्मान भी दिया जा चुका है।[७]

अनुक्रम

[छुपाएँ]

[संपादित करें] पर्वतारोहण

इस हिमशिखर के मार्ग में आने वाले पहाड़ काफी तिरछे हैं। ऑक्सीजन की कमी के कारण खड़ी चढ़ाई पर आगे बढ़ना एक दुष्कर कार्य है। यही कारण है कि इस शिखर पर जाने के इच्छुक पर्वतारोहियों को १९३४ तक इस शिखर पर जाने का सही मार्ग नहीं मिल पाया था। इसका मार्ग ब्रिटिश अन्वेषकों द्वारा खोजा गया था।

  • १९३६ में ब्रिटिश-अमेरिकी अभियान को नंदादेवी शिखर तक पहुंचने में सफलता मिली। इनमें नोयल ऑडेल तथा बिल तिलमेन शिखर को छूने वाले पहले व्यक्ति थे, जबकि नंदादेवी ईस्ट पर पहली सफलता १९३९ में पोलेंड की टीम को मिली।
  • नंदादेवी पर दूसरा सफल अभियान इसके ३० वर्ष बाद १९६४ में हुआ था। इस अभियान में एन. कुमार के नेतृत्व में भारतीय टीम शिखर तक पहुंचने में सफल हुई। इसके मार्ग में कई खतरनाक दर्रे और हिमनद आते हैं।
  • नंदादेवी के दोनों शिखर एक ही अभियान में छूने का गौरव भारत-जापान के संयुक्त अभियान को १९७६ में मिला था।
  • १९८० में भारतीय सेना के जवानों का एक अभियान असफल रहा था।
  • १९८१ में पहली बार रेखा शर्मा, हर्षवंति बिष्ट तथा चंद्रप्रभा ऐतवाल नामक तीन महिलाओं वाली टीम ने भी सफलता पायी।

नंदादेवी के दोनों ओर ग्लेशियर यानी हिमनद हैं। इन हिमनदों की बर्फ पिघलकर एक नदी का रूप ले लेती है।

सुवर्ण वर्णी नंदा देवी शिखर, सूर्यास्त की किरणों से आच्छादित

पिंडारगंगा नाम की यह नदी आगे चलकर गंगा की सहायक नदी अलकनंदा में मिलती है। उत्तराखंड के लोग नंदादेवी को अपनी अधिष्ठात्री देवी मानते है। यहां की लोककथाओं में नंदादेवी को हिमालय की पुत्री कहा जाता है।[७] नंदादेवी शिखर के साये मे स्थित रूपकुंड तक प्रत्येक १२ वर्ष में कठिन नंदादेवी राजजात यात्रा श्राद्धालुओं की आस्था का प्रतीक है।[८][९] नंदादेवी के दर्शन औली, बिनसर या कौसानी आदि पर्यटन स्थलों से भी हो जाते हैं। अविनाश शर्मा, शेरपा तेनजिंग और एडमंड हिलेरी नामक पर्वतारोहियों ने एवरेस्ट को सबसे पहले विजय करने के अलावा हिमालय पर्वतमाला की कुछ और चोटियों पर विजय प्राप्त की थी। एक साक्षात्कार के दौरान शेरपा तेनजिंग कहा था कि एवरेस्ट की तुलना में नंदादेवी शिखर पर चढ़ना ज्यादा कठिन है।

Tuesday, July 27, 2010


आज जबकि उत्तराखंड एक अलग राज्य बन गया है जिसका हमे बरसों से सपना देखा था,आज उत्तराखंड को अलग राज्य बने हुए 10 साल होने जा रहे हैं लेकिन विकास के नाम पर तो अभी भी उत्तंचल एक राज्य नहीं लगता है !
अलग राज्य का सपना हमने देखा था की पहाडों का और पहाडों मैं राणे वाले लोगों का विकास हो लेकिन अभी तक इन नौ सालों मैं विकास के नाम पर विनास ही ज्यादा नजर आ रहा है,
पहाडों मैं रहने वाले लोग आज भी विकास के लिए तरस रहे हैं और विकास नामक उस लालटेन के उजाले का इन्तजार कर रहे हैं जिसको पाने के लिए हमने एक सुन्दर सा प्यारा सा सपने देखा था की हमारा भी एक घर हो
इन पहाडों मैं रहने वाले बच्चे आज उन रास्तों के किनारे बैठ कर सपने देखते हैं कि:-कब आएगा ओ दिन जिस दिन हम इन्नी रास्तोंकि जगह पर सड़कें देखेंगे और कब हम उन सडको पर पैदल चले कि वजाय बसों मैं स्कूल जायेंगे ,
क्या ये इन बच्चों का सपना सपना ही रहेगा या ये बचे भी एक दिन इन पहाडी रास्तों पर पैदल चलने कि वजाय स्कूल कि बसों मैं सफ़र करेंगे!उत्तरांचल राज्य गठन होने के बाद सहरों कस्बों और कुछ हद याक गावों के स्कूल और शिछा के माद्यम मैं कुछ हद तक विकास हुवा है,
पर्वतीय भागों मैं आजकल अछे स्कूल खुल गए हैं लेकिन आज भी उन पहाडों मैं जीवन ब्यतीत करने वाला एक गरीब आदमी अपने बच्चों को उन पब्लिक स्कूलों मैं नहीं पड़ा सकता है,उत्तराँचल के पहाड़ी छेत्रों के विद्यार्थी अपने घरों से ४- ५ किलोमीटर राज पैदल जाते हैं और ये उनका रोज का आना जाना होता है !
क्योंकि गरीब पहाड़ी परिआरों के पास और कोई चारा भी नहीं है वे अपने बचों को पब्लिक स्कूलों मैं पढ़ा सकें , यही कारण है कि पहाडों मैं रहने वाले बचों को हमेशा ४-या ५-किलोमीटर दूर जाना पड़ता है पड़ने के लिए ,प्रदेश कि राज्य सरकार का अर्थ एवं संख्या विभाग का आंकड़ों के अनुसार उत्तराँचल मैं आज भी गरीबी रेखा से नीचे जीवन ब्यतीत करने वाले परिवारों कि संख्या लगभग ७ लाख तक पहुच गयी है!

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Saturday, July 24, 2010

रामी बौराणी
पहाङी समाज में नारी कीभूमिका पुरुषोंसे अधिकमहत्वपूर्ण है. खेतों मेंकमरतोङमेहनतकरना, जंगलोंमें पशुओं केचारे के लियेभटकना औरघर में बच्चोंका पालनपोषन करनालगभग हरपहाङी स्त्री के जीवनचक्र में शामिलहै. यह संघर्षपूर्ण जिन्दगी कुछआसान लगती, अगर हर औरत कोअपने पति का साथ मिलता. लेकिनपहाङ के अधिकांश पुरुष रोजी-रोटीकी व्यवस्था के लिये अपने परिवारसे दूर मैदानों में जाकर रहते हैं. कईदशकों से चली रही इस परिपाटीको अभी भी विराम नहीं लगाहै.पति के इन्तजार में अपने यौवनके दिन गुजार देने वाली पहाङ कीइन स्त्रियों को लोककथाओं में भीस्थान मिला है.

रामी (रामी बौराणी*) नाम कीएक स्त्री एक गांव में अपनी सास केसाथ रहती थी, उसके ससुर कादेहान्त हो गया था और पति बीरूदेश की सीमा पर दुश्मन सेमुकाबला करता रहा. दिन, सप्ताहऔर महीने बीते, इस तरह 12 सालगुजर गये. बारह साल का यहलम्बा समय रामी ने जंगलों औरखेतों में काम करते हुए, एक-एकदिन बेसब्री से अपने पति काइन्तजार करते हुए बङी मुसीबत सेव्यतीत किया.(*रामी बौराणी- बौराणी शब्दबहूरानीका अपभ्रंशहै)


बारह साल के बाद जब बीरू लौटातो उसने एक जोगी का वेष धारणकिया और गांव में प्रवेश किया. उसका इरादा अपनी स्त्री के पतिव्रतकी परीक्षा लेने का था. खेतों मेंकाम करती हुई अपनी पत्नी को देखकर जोगी रूपी बीरु बोला-


रामी बौराणी 01


बाटा गौङाइ कख तेरो गौं ?
बोल बौराणि क्या तेरो नौं ?
घाम दुपरि अब होइ ऐगे, एकुलिनारि तू खेतों मां रैगे....

जोगी- खेत गोङने वाली हे रूपमती! तुम्हारा नाम क्या है? तुम्हारा गांवकौन सा है? ऐसी भरी दुपहरी मेंतुम अकेले खेतों में काम कर रहीहो.

रामी- हे बटोही जोगी! तू यहजानकर क्या करेगा? लम्बे समयसे परदेश में रह रहे मेरे पतिदेव कीकोई खबर नहीं है, तू अगर सच्चाजोगी है तो यह बता कि वो कबवापस आयेंगे?

जोगी- मैं एक सिद्ध जोगी हूँ, तुम्हारे सभी प्रश्नों का उत्तर दूंगा. पहले तुम अपना पता बताओ.

रामी- मैं रावतों की बेटी हूँ. मेरानाम रामी है. पाली के सेठों की बहूहूँ , मेरे श्वसुर जी का देहान्त होगया है सास घर पर हैं. मेरे पतिमेरी कम उम्र में ही मुझे छोङ करपरदेश काम करने गये थे.12 सालसे उनकी कोई कुशल-क्षेम नहींमिली.

जोगी रूपी बीरु ने रामी की परीक्षालेनी चाही.

जोगी- अरे ऐसे पति का क्या मोहकरना जिसने इतने लम्बे समयतक तुम्हारी कोई खोज-खबर नहींली. आओ तुम और मैं खेत केकिनारे बुँरांश के पेङ की छांव में बैठकर बातें करेंगे.

रामी- हे जोगी तू कपटी है तेरे मनमें खोट है. तू कैसी बातें कर रहा है? अब ऐसी बात मत दुहराना.

जोगी- मैं सही कह रहा हूँ, तुमनेअपनी यौवनावस्था के महत्वपूर्णदिन तो उसके इन्तजार में व्यर्थगुजार दिये, साथ बैठ कर बातेंकरने में क्या बुराई है?


रामी बौराणी 02


देवतों को चौरों, माया को मैं भूखोंछौं
परदेSSशि भौंरों, रंगिलो जोगि छों
सिन्दूर कि डब्बि, सिन्दूर कि डब्बि,
ग्यान ध्यान भुलि जौंलो, त्वै नेभूलो कब्बि
परदेSSशि भौंरों, रंगिलो जोगि छों

रामी- धूर्त! तू अपनी बहनों कोअपने साथ बैठा. मैं पतिव्रता नारीहूँ, मुझे कमजोर समझने की भूलमत कर. अब चुपचाप अपना रास्तादेख वरना मेरे मुँह से बहुत गन्दीगालियां सुनने को मिलेंगी.

ऐसी बातें सुन कर जोगी आगे बढकर गांव में पहुँचा. उसने दूर से हीअपना घर देखा तो उसकी आंखें भरआयी. उसकी माँ आंगन की सफाईकर रही थी. इस लम्बे अन्तराल मेंवैधव्य बेटे के शोक से माँ के चेहरेपर वृद्धावस्था हावी हो गयी थी. जोगी रूप में ही बीरु माँ के पासपहुँचा और भिक्षा के लिये पुकारलगायी.“अलख-निरंजन


रामी बौराणी 03



कागज पत्री सबनां बांचे, करम नांबांचे कै ना
धर्म का सच्चा जग वाला ते, अमरजगत में ह्वै ना.
हो माता जोगि तै भिक्षा दे दे, तेरोसवाल बतालो....

वृद्ध आंखें अपने पुत्र को पहचाननहीं पाई. माँ घर के अन्दर से कुछअनाज निकाल कर जोगी को देने केलिये लाई.

जोगी- हे माता! ये अन्न-धन मेरेकिस काम का है? मैं दो दिन सेभूखा हूँ,मुझे खाना बना करखिलाओ. यही मेरी भिक्षा होगी.

तब तक रामी भी खेतों का कामखतम करके घर वापस आयी. उसजोगी को अपने घर के आंगन मेंबैठा देख कर रामी को गुस्सा गया.

रामी- अरे कपटी जोगी! तू मेरे घरतक भी पहुँच गया. चल यहाँ सेभाग जा वरना.....

आंगन में शोर सुन कर रामी कीसास बाहर आयी. रामी अब भीजोगी पर बरस रही थी.

सास- बहू! तू ये क्या कर रही है? घर पर आये अतिथि से क्या ऐसेबात की जाती है? चल तू अन्दरजा.

रामी- आप इस कपटी का असलीरूप नहीं पहचानती. यह साधू केवेश में एक कुटिल आदमी है.

सास- तू अन्दर जा कर खाना बना. हे जोगी जी! आप इसकी बात काबुरा माने, पति के वियोग मेंइसका दिमाग खराब हो गया है.

रामी ने अन्दर जा कर खानाबनाया और उसकी सास ने मालू केपत्ते में रख कर खाना साधु कोपरोसा.


रामी बौराणी 04


मालू का पात मां धरि भात, इन
खाणा मां नि लौन्दु हाथ...
रामि का स्वामि की थालि मांज, ल्याला भात में तब खोलों भात..

जोगी- ये क्या? मुझे क्या तुमने
ऐरा-गैरा समझ रखा है? मैं पत्ते में दिये गये खाने को तो हाथ भी नहीं लगाउंगा. मुझे रामी के पति बीरु की थाली में खाना परोसो.

यह सुनकर रामी अपना आपा खो
बैठी.

रामी- नीच आदमी! अब तो तू
निर्लज्जता पर उतर आया है. मै अपने पति की थाली में तुझे खाना क्यों दूंगी? तेरे जैसे जोगी हजारों देखे हैं. तू अपना झोला पकङ कर जाता है या मैं ही इन्हें उठा कर फेंक दूँ?

ऐसे कठोर वचन बोलते हुए उस
पतिव्रता नारी ने सत् का स्मरण किया. रामी के सतीत्व की शक्ति से जोगी का पूरा शरीर बुरी तरह से कांपने लगा और उसके चेहरे पर पसीना छलक गया. वह झट से अपनी माँ के चरणों में जा गिरा. जोगी का चोला उतारता हुआ बोला-

बीरु- अरे माँ! मुझे पहचानो! मैं
तुम्हारा बेटा बीरू हूँ. माँ!! देखो मैं वापस गया.

बेटे को अप्रत्याशित तरीके से इतने
सालों बाद अपने सामने देख कर माँ हक्की-बक्की रह गई. उसने बीरु को झट अपने गले से लगा लिया.बुढिया ने रामी को बाहर बुलाने के लिये आवाज दी.

रामि देख तू कख रैगे, बेटा
हरच्यूं मेरो घर ऐगे

रामी भी अपने पति को देखकर
भौंचक रह गयी. उसकी खुशी का ठिकाना रहा, आज उसकी वर्षों की तपस्या का फल मिल गया था.इस तरह रामी ने एक सच्ची भारतीय नारी के पतिव्रत, त्याग समर्पण की एक अद्वितीय मिसाल कायम की


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Thursday, July 22, 2010


"माँ के नाम"
कहते है माँ तेरी सुरत भगवान के जैसी होती है सूखे में रखती है मुजको खुद गीले में सोती है तेरा ये कर्ज दूध का में कभी उतार न पाऊंगा चोट जरा भी लगती मुझको आँखे तेरी रोती हैं तेरी जिव्हा से बोलता हु, चलता हु तेरे कदमो से मेरे दिल में तेरी धड़कन है, तू नैनो कि ज्योति है घर खाने कि कोई चीज तू सबसे बाद में खाती है समझो तो गहरे हैं मायने, वर्ना बात बहुत ही छोटी है जिस पल तेरा दिल दुखाया इस नालायक बेटे ने तेरी आँख से गिरा है जो हर इक आंसू मोती है कोख में अपने खून से सींचा, जब गोद में आया दूध पिलाया जीवन से क्या पाया तूने तू तो सदा ही खोती है में मूरख अज्ञानी तेरा मन समझ नहीं पाता हु में नफरत कि बंजर भूमि , तू बीज प्यार के बोती है तू प्रेम कि बहती गंगा तेरा रूप क्या समझेगा कोई तू ही मरियम तू फातिमा तू कभी यशोदा होती है सच कहते है तेरी सूरत भगवान् के जैसी होती है सूखे में रखती है मुजको खुद गीले में सोती है!
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ज़माने के साथ बदलता पहाड़ी संगीत
आज ज़माने के साथ बदलता जा रहा है पहाड़ी संगीत. कई इनसे गीत संगीत सुनाई दे रहा है जो अगर बोली छोड़ दे तो कहीं से भी पहाड़ी अस्तित्व नहीं दिखाई देता. आजकल गीतों में मौलिक आवाज़ की जगह एक पतली एवं फटी आवाज़ सुनाई देती है जो की हर एल्बम में १ गाने में जरूर होती है. क्या यह बदलता स्वरुप हम लोगों ने स्वीकार कर लिया है. या फिर इसको इस सस्ती लोकप्रियता कहेंगे जो की गायक कर रहे हैं... कुछ गीत इसके उदहारण है.फुर्की बांद लबरा छोरी, छेकना बांध,लीला घसियारी ..क्या है ये कोई गीत है क्या ये तो सरासर अपमान है अपने बहु बेटियों का ... क्या आपको लगता है की ये गाने सही है ? ये कोन सा बोली हुई फुर्की बांध,लीला गसियारी , इस तरीके की बोली आजकल के गायक बोल रहे है और हम लोग भी मस्त होकर सुनते है एन्जॉय करते है क्यों एषा क्यों हो रहा है हमारे पहाड़ी समाज में .... क्या ... आखिर इसका क्या कारण है क्यों हो रहा है ये सब .....

हिमांशु बिष्ट


एक
समय था जब शादी या फिर दूसरी पार्टियों में डीजे पर सबसे ज्यादा हिंदी डांस नंबर्स बजाए जाते थे. समय बदला और इंग्लिश डांस नंबर्स का एक खास श्रोता वर्ग उभर आया. लेकिन जब हर तरह के म्यूजिक के साथ एक्सपेरिमेंट हो रहे हैं, तो भला फोक क्यों पीछे रहे. इन दिनों गढ़वाली-कुमाऊंनी रीमिक्स डांस नंबर्स डीजे पर सबसे ज्यादा बजाए जा रहे हैं और थिरकने की चाह पाले श्रोता इन्हें पसंद भी कर रहे हैं. युवाओं की खास च्वॉइसगजेंद्र राणा का गाया गढ़वाली गीत तू लगदी झकास हो या फिर मंगलेश डंगवाल का चढ़दी जवानी तेरी मस्त शिवानी युवाओं की खास च्वॉइस लिस्ट में शामिल हैं. कैसेट विक्रेताओं का कहना है कि एक समय था, जब युवा अक्सर गढ़वाली-कुमाऊंनी जैसे रिजनल सांग्स से दूर ही रहा करते थे, या फिर सेलेक्टेड नंबर्स ही पसंद किया करते थे, लेकिन अब रिजनल सांग्स का एक खास श्रोता वर्ग है. फोक सांग्स के साथ किया जाने वाला एक्सपेरिमेंट लोगों को काफी पसंद आ रहा है. बदलाव की बयारसागर म्यूजिक हट के ओनर कमल लोनियाल बताते हैं कि इन दिनों हर तरह के म्यूजिक में एक्सपेरिमेंट्स किए जा रहे हैं. गढ़वाली और कुमाऊंनी सांग्स में भी पहले की अपेक्षा काफी अंतर आ गया है. फिर चाहे वह ऑडियो हो या फिर वीडिओ. कमल लोनियाल बताते हैं कि कैसेट सीडीज के मार्केट में लगभग 30 परसेंट मार्केट रिजनल सांग्स का है. कमल बताते हैं कि शादी, पार्टीज में गढ़वाली-कुमांऊनी के फास्ट रिदमिक सांग्स को काफी पसंद किया जाता है, लेकिन जो लोग प्योर फोक म्यूजिक सांग्स सुनना चाहते हैं, उनका एक अलग ग्रुप है. ट्रेडिशनल फोक के लिसनर ग्रुप में नरेंद्र सिंह नेगी, प्रीतम भरतवाण व मीना राणा को पसंद किया जाता है. वहीं युवाओं में गजेंद्र राणा, मंगलेश डंगवाल और मास्टर रोहित की ऑडियो और वीडियो सीडी पसंद किया जाता है

Tuesday, July 20, 2010


मुल-मुल कैकु हैंसणि छै तू, मुल-मुल कैकु हैंसणि छै तू, हे कुलै की डालि

कखि तिन मेरि आख्यूं का सुपिन्या, देखि त नि यालि
मुल-मुल कैकु हैंसणि छै तू, हे कुलै की डालि
कखि तिन मेरि आख्यूं का सुपिन्या, देखि त नि यालि
मुल-मुल कैकु हैंसणि छै तू

त्वै मां बोदु हे दगड़िया, मन की गैंड़ खोलि, त्वै मां बोदु हे दगड़िया, मन की गैंड़ खोलि
ब्योला बणि वो सुपिन्या मां आई, तू कैमां ना बोलि
छुंयाल घसैलि सुणालि- छुंयाल घसैलि सुणालि, बात फैलि जालि
मुल-मुल कैकु हैंसणि छै तू, हे कुलै की डालि, मुल-मुल कैकु हैंसणि छै तू…..

हे घुघति, घिन्दुड़ि, हे हिलांसि, तू भी भुलि ना जैई, हे घुघति, घिन्दुड़ि, हे हिलांसि, तू भी भुलि ना जैई
मुण्ड बदौणु मेरा ब्यो मां दगड़्या, टक्क लगै की ऐई
न्यूंति बुलोंलु, पुजि पठ्यौंलु – न्यूंति बुलोंलु, पुजि पठ्यौंलु, मिन पैलि बोल्यालि
मुल-मुल कैकु हैंसणि छै तू, हे कुलै की डालि, मुल-मुल कैकु हैंसणि छै तू…..

कुतग्यालि सि लगणि तन-मन मां, सोचि सोचि लाज, कुतग्यालि सि लगणि तन-मन मां, सोचि सोचि लाज
घासन क्यैकि पूरी ह्वैनि, गैठ्याई डांनि आज
सैरि दुन्या अपणी ह्वै ग्याई-सैरि दुन्या अपणी ह्वै ग्याई, बिराणी छै जा ब्यालि
मुल-मुल कैकु हैंसणि छै तू, हे कुलै की डालि, मुल-मुल कैकु हैंसणि छै तू…..

सासु मयैल्यू मेरि ससुरा जी द्याब्ता, भलि-भलि नणद जेठाणि,सासु मयैल्यू मेरि ससुरा जी द्याब्ता, भलि-भलि नणद जेठाणि
बिसरि ना ज्यूं त्वै यना सैसुर में, दगड़्या बुरु ना मानि
भाग मां होलु चा नि होलु – भाग मां होलु चा नि होलु, सुपिन्या त देखि यालि
मुल-मुल कैकु हैंसणि छै तू, हे कुलै की डालि, कखि तिन मेरि आख्यूं का सुपिन्या, देखि त नि यालि
मुल-मुल कैकु हैंसणि छै तू……।


रे चीड़ की डाली तू ऐसे मन्द-मन्द क्यूँ मुस्कुरा रही है, कहीं तूने मेरी आंखों में तैर रहे सपने देख तो नहीं लिये हैं? अरे अब मैं तुझ से क्या छुपाऊं, मैं अपनी दिल की गांठ अब तेरे सामने खोल ही देती हूँ. कल “वो” दूल्हा बन कर मेरे सपने में आये थे, लेकिन तू यह बात किसी को बताना मत। अगर यह बात घास काटने वाली बातूनी महिलाओं ने सुन ली तो यह बात फैल जायेगी।

जंगल में पाये जाने वाली विभिन्न प्रकार के पक्षियों को संबोधित करते हुए युवती कहती है – हे घुघुती, हे घिन्दुड़ी, हे हिलांसी तुम लोग भी भूलना नहीं। मैं तुम सब को न्यौता भिजवाउंगी, तुम सब मेरी शादी में जरूर आना।

मेरे तन-मन में हल्की गुदगुदी सी लग रही है, और यह सब सोच-सोच कर मुझे शरम भी आ रही है। कल तक जो दुनिया पराई थी वो आज अचानक अपनी सी लगने लगी है। मैने सपने में देखा कि मेरी सासू जी बहुत प्यार करने वाली हैं और ससुर जी तो देवता समान हैं, ननद-जेठानी भी अच्छी हैं। अब ऐसे ससुराल में जाकर अगर में तुम सब साथियों को भूल भी जाऊं तो आशा है कि तुम लोगों को बुरा नहीं लगेगा। अब यह सब बातें सच होंगी या नहीं, क्या पता? लेकिन मैने सपना तो देख ही लिया है।


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Saturday, July 17, 2010


हरियाला सावन ढोल बजाता आया हरियाला सावन ढोल बजाता आया धिन तक तक मन के मोर नचाता आया मिट्टी में जान जगाता आया को: धरती पहनेगी हरी चुनरिया बनके दुल्हनिया .......हरियाला सावन ढोल बजाता आया हरियाला सावन ढोल बजाता आया...........

Thursday, July 15, 2010


"आज फिर से मुझे (हिमांशु) अपना बचपन याद आया"

आज सुबह सुबह जेसे हि में (हिमांशु बिष्ट ) उठा गाव से माँ का फोन आ गया की आज से सावन का महीना सुरु हो गया है,
माँ मुझसे बोली की जल्दी उठ जा और नहा धो कर पूजा पाठ कर ले ..और सायद घर पे टीवी चल रहा था और टीवी में ये गाना चल रहा था, " सावन का महिना पवन करे शोर मोरा जियरा ऐसे नाचे जैसे नाचे मोर " तो यह पुराना गाना सुनकर तबियत खुश हो गई की सावन तो आ गया है . पर तबके सावन और अबके सावन के विषय में सोचने को मजबूर हो गया की तबके सावनो में जोरदार बारिश होती थी और तेज हवाए चलती थी और सररर सररर सन्न्न करती हुई खूब शोर किया करती थी . तेज बारिश के बीच झूला झूलने का आनंद ही कुछ और होता था . समय बदलने के साथ साथ लगता है की सावन भी बदल गया है न तेज जोरदार हवाए चलती है और न जोरदार बारिश होती है . अब तो ऐसा आभास होता है की सावन बारिश के वगैर सूना सूना सा है . भविष्य में सावन के महीने में हरियाली का वातावरण बनाने के लिए और जियरा को खुश करने के लिए और मनवा को मोर जैसे नचाने के लिए कहीं कृत्रिम बारिश का सहारा न लेना पड़े.....
अब तो अपने पहाड़ से दूर होकर ..... मुझे वो दिन याद आते है जब सावन के महीने में वो मुसलाधार बारिस , नदी अपनी चरम सीमा पे और बदलो की गर्जना , थर-थर काप जाता था में ..... थोड़ी देर बाद जब धुप निकलती तो दोस्तों के साथ खेलने चला जाता था ... गुल्ली डंडा । तब हमारा सबसे अछा खेल था.... लेकिन अब कहा ... आज मुझे फिर से अपना बचपन याद आ गया ... माँ मुझे भट (सोयाबीन) भूनकर देती ... मेरी जेब में भर कर देती ... आगे लिखने में असमर्थ हूँ! "अब मेरी आंखे नम हो चुकी है,,,,..... आज फिर से मुझे अपना बचपन और माँ की वो यादें त
जा हो गयी".......
हिमांशु बिष्ट

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Tuesday, July 13, 2010


प्राकृतिक सुंदरता से ओतप्रोत औली भारत (उत्तराखंड) का प्रसिद्ध पर्यटक स्थल है। सूर्य की किरणें जब यहाँ की पर्वतों की श्रंखला पर पड़ती हैं तो उसकी चमक देखते ही बनती है। बर्फ से खेलने का आनंद कुछ और ही है। दिसम्बर से लेकर मार्च तक प्रकृति अपने सुड़ौल रूप में रहती है। नीले गगन के नीचे हरियाली बर्फ से ढँकी हुई रहती है

बद्रीनाथ से तीस किलोमीटर पहले आता है जोशीमठ। जोशीमठ से सोलह किलोमीटर दूर है भारत का सबसे अच्छा स्की रिजोर्ट औली। औली की ढलानो को भारत ही नहीं दुनिया की सबसे अच्छी ढलानों में शुमार किया जाता है। जोशीमठ दिल्ली से पाँच सौ किलोमीटर और हरिद्वार से तीन सौ किलोमीटर दूर है।

यहां नवम्बर से मार्च तक स्की का मजा लिया जा सकता है। औली बर्फ पिघलने के बाद भी इतना ही खुबसूरत रहता है। गर्मी के मौसम में यहां ढलाने घास के ढक जाती हैं। इन घास के मैदानों को गढवाल में बुग्याल कहा जाता है।

जोशीमठ से यहां तक जाने के लिए सडक तो है ही आप चाहें तो रोप वे से भी जा सकते हैं। इस चार किलोमीटर लम्बे रोप वे से यहां की खूबसूरती को आसानी से देखा जा सकता है। औली की तस्वारो में देखिये इसकी दिव्य सुन्दरता को..............

प्राकृतिक सुंदरता से ओतप्रोत औली भारत (उत्तराखंड) का प्रसिद्ध पर्यटक स्थल है। सूर्य की किरणें जब यहाँ की पर्वतों की श्रंखला पर पड़ती हैं तो उसकी चमक देखते ही बनती है। बर्फ से खेलने का आनंद कुछ और ही है। दिसम्बर से लेकर मार्च तक प्रकृति अपने सुड़ौल रूप में रहती है। नीले गगन के नीचे हरियाली बर्फ से ढँकी हुई रहती है

यहां पर कपास जैसी मुलायम बर्फ पड़ती है और पर्यटक खासकर बच्चे इस बर्फ में खूब खेलते हैं। औली में प्रकृति ने अपने सौन्दर्य को खुल कर बिखेरा है। बर्फ से ढकी चोटियों और ढलानों को देखकर मन प्रसन्न हो जाता है। स्थानीय लोग जोशीमठ और औली के बीच केबल कार स्थापित करना चाहते हैं। जिससे आने-जाने में सुविधा हो और समय की भी बचत हो। इस केबल कार को बलतु और देवदार के जंगलो के ऊपर से बनाया जाएगा। यात्रा करते समय आपको गहरी ढ़लानों और ऊंची चढाई चढ़नी पड़तीं है। यहां पर सबसे गहरी ढलान 1,640 फुट पर और सबसे ऊंची चढा़ई 2,620 फुट पर है। पैदल यात्रा के अलावा यहां पर चेयर लिफ्ट का विकल्प भी है।


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मूल मूल के तू हसनी छे हे निमो की दांडी.....

कन छीन मेरा पहाड़ का हाल या
केन नि जाडी ....

जरा त्वे ता बातो निमो की दांडी की क्या ची होनु मेरा
पहाड़ माँ ....

में ता छो आयु नोकरी कन अपना पहाड़ ते छोड़की......

मूल
मूल के तू हसनी छे हे निमो की दांडी.......

Monday, July 12, 2010

नयु-नयु ब्यो च मीठी-मिठि छुईं लगौंला
पत्नी अपनेपति से कहतीहै की अजीसुनिये! आप इतनी जल्दीबाजी मतकरिये। हमारी नयी-नयी शादी है, हम धीरे-धीरे मीठी मीठी बातें करतेहुए जायेंगे। पति कहता है कि अजीनहीं तुम तेज तेज चलो, हम लोगजल्दी-जल्दी जायेंगे और इन बातोंको हम घर पर पहुंच कर आराम सेकरेंगे।

पत्नी बहाना बनाते हुए कहती है किअब तुम ही बताओ मैं तेज तेज कैसेचल पाउंगी, मेरे इतने ऊंचे सैण्डलहैं, यह चढ़ाई वाला ऊंचा रास्ता है, और गर्मी के दिन है। चलो ऐसाकरते हैं कि हम दोनों लोग किसीपेड़ की छाया में बैठ जाते हैं, औरफिर मीठी मीठी बातें करते हैंआखिर हमारी नयी नयी शादी हुईहै।
दोनों की नयी- नयी शादी हुईलड़की सैंडल पहन के पहाड़ी रश्तोंपर चलने में असमर्थ है
..
भावार्थ - पति समझाते हुए कहताहै कि अब तुम ज्यादा फैशन कीबातें ना करो, जल्दी-जल्दी चलो, यदि सैण्डल से परेशानी हो रही हैतो सैण्डल अपने बटुए में रख लोऔर नंगे पैर ही चलो, अगर हमलोग जल्दी घर नहीं पहुंचे तो यहींभूखे मर जायेंगे, इसलियेजल्दी-जल्दी चलते हैं और इनबातों को घर पर पहुंच कर आरामसे करेंगे।

पत्नी झूठा गुस्सा करते हुए कहती हैकि तुम तो सिर्फ बात ही करने वालेलगते हो, तुम बहुत बड़े कन्जूसहो,मुझे पैदल वाले रास्ते से ले आयेइससे तो अच्छा होता कि हमआराम से गाड़ी की पिछली सीट परबैठ कर यात्रा करते, अब चलो आओथोड़ा नीचे बैठो, और फिर मीठीमीठी बातें करते हैं आखिर हमारीनयी नयी शादी हुई है।

पति फिर समझाता है कि कलपरसों से तुम्हें खेतों पर काम करनेजाना होगा, तुम अपने इन कोमलहाथ पैरों से कैसे खा पाओगीगुजर-बसर करोगी), जब इस भरीजवानी में ही तुम्हारे यह हाल है तोपता नहीं बुढापे में तुम्हारा क्याहोगा? अब तुम तेज तेज चलो, हमलोग जल्दी-जल्दी जायेंगे और इनबातों को हम घर पर पहुंच करआराम से करेंगे।
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